पद्मश्री बाबूलाल दाहिया
कल नदी दिवस था। नदियों से मनुष्य का बहुत प्राचीन नाता रहा है। यहां तक कि प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य की जो भी वस्तियां होती थीं वह सभी नदियों के किनारे ही। वे नदियों का पानी पीते और नित्य क्रिया के पश्चात उसी में नहाते धोते भी। फिर भी अविरल बहने एवं सदानीरा होने के नाते वे कभी प्रदूषित नही होती थीं। मुझे अब तक स्मरण है कि जब मै 1956 में गांव की पढ़ाई पूरी कर सतना नगर पढ़ने के लिए गया तब पैदल ही रास्ते में पड़ने वाली सतना नदी को पार करके जाना पड़ता था। और तब चैत बैसाख में भी हम लोग जांघ तक पानी हिल कर पार करते थे।
बाजार जाने वाले लोग जब लौटते तब नदी के घाट में ही बैठकर अपनी लाई, गुड़इया सत्तू आदि वहीं दोनों में घोर कर खाते और उसी का पानी भी पीते। यह स्थिति सतना नदी भर की नही बल्कि नागौद के पास से बहने वाली अमरन नदी की भी थी। परन्तु आज यह स्थिति है कि पीने की कौंन कहे किसी नदी में नहाने लायक भी पानी नही बचा। आखिर 50-- 60 वर्ष में ही यह क्या होगया,जब कि नदियां तो लाखों वर्षो से यहां से बहती रही हैं?
अब यह कहने में जरा भी सन्देह नही कि ,इसका कारण खेती की नई तकनीक, ताबड़तोड़ औद्योगीकरण और मनुष्य के जीवन शैली में आए बदलाव का परिणाम ही है। सतना नदी तो शहर से आगे जाकर टमस में मिल जाती है पर जहां तक अमरन नदी के इस दुर्दशा की बात है, तो इसका कारण उसके उद्गम से लेकर सतना नदी में मिलने तक आधुनिक खेती और बढ़ी हुई जन संख्या ही जिम्मेदार है। इसे समझने के लिए हमें 50 वर्ष पीछे लौट कर बिचार करना पड़ेगा।
जिस खेती के कारण अमरन नदी की यह दशा है ,वह 70 के दशक में आई आयातित खेती है। शुरू-शुरू में यह खेती तीन चीजों पर टिकी थी । वह थे--
1--उन्नत किस्म के बीज
2-- रसायनिक उर्वरक
3-- सिंचाई के साधन
जब यह तीनों का सांगों पांग बना तो उत्पादन बढ़ा। तब उससे पर्यावरण पर कोई खास दुष्प्रभाव नही पड़ा था। पर बाद में उसके लिए थ्रेसर आया,ट्रेक्टर आया,हारबेस्टर आया और एक - एक हजार फीट का पानी खींचने वाले पम्प भी आते गए। फिर ऐसी खेती बढ़ी कि उसे रखने के लिए गोदाम तक कम पड़ गए।
हम ने लड़कपन में पढ़ा था कि , विज्ञान वरदान भी है और अभिशाप भी। 90 के दशक तक वह निश्चय ही बरदान रहा जब हैजा, चेचक, प्लेग आदि तमाम जानलेबा बीमारियां समाप्त हो गईं। कहाँ तो 50 के दशक तक भर पेट भोजन भी नही था, पर आज समूचे देश में इतना अधिक अनाज है कि यदि एक बोरा के ऊपर दूसरा रखते जाँय तो बोरों की वह श्रंखला चंद्रमा तक पहुँच जाय।परन्तु आज जब वर्तमान पर्यावरण को पूर्णतः विध्वंस देखते हैं, हर वर्ष ग्रामों में पानी केलिए हाहाकार देखते हैं, तो अब ऐसा लगता है कि कुछ वर्षों से उस विज्ञान का अविशाप ही भोग रहे हैं।
मेरी अवस्था 82 वर्ष है और नागौद में अनेक पुरानी रिस्तेदारियां भी हैं। अस्तु मैने नागौद के समीप से बहने वाली इस अमरन नदी का वह रूप देखा है जब वह सदानीरा थी। तब वह बगैर किसी अवरोध के अविरल बहती थी। नागौद किले के आगे नदी के किनारे बहुत से पेड़ भी थे। उस नगर का पानी खारा होने के कारण लोग किले के पास के मैदान में बने एक कुँआ का पानी पीने के लिए ले जाते बाकी समस्त निस्तार उसी आमरन नदी से ही करते थे।
जब मै खुद किन्ही रिश्तेदारों के यहां रात्रि रुकता तो सुबह नदी में ही मेरा मंजन- दांतून वगैरह होता और फिर दोपहर स्नान भी वही करने जाता। पर आज जिस तरह उस अमरन नदी को जल विहीन देखता हूं तो बड़ा दुख होता है कि हमने उसे क्या बना डाला? क्योकि सूखी नदिया और सोया हुआ शहर यह यूं ही अपने आप में बड़े भयानक दिखने लगते हैं।
उत्तर भारत की नदियां हिम नद हैं। पानी की बारिश हो न हो हिमालय में हिम पिघलता है ,और वहां का जल स्तर बढ़ा देता है। परन्तु हमारे यहां की नदियां हिम पुत्री नही, वन पुत्री हैं। अस्तु इन वन जाइयों का अस्तित्व वन से है और उनके जल प्रदाता वन ही हैं। इसलिए नदी को सदानीरा बनाने के लिए हमें वन की ओर भी ध्यान देना होगा। पर जब हम एक- एक हजार फीट का पानी धरती से विदोहित करेंगे तो उसका असर पेड़ों के ऊपर भी पड़ेगा। अस्तु पानी बढ़ाने के लिए हमें पेड़ बचाने होंगे, जंगल बढ़ाने होंगे। साथ ही यह भी बिचार करना जरूरी है कि जो अनाज किसान उगा रहे हैं कही उस अनाज से मूल्यवान अपना पानी तो वरवाद नही कर रहे?वैसे यह नदी नाले और पहाड़ वन बढ़ाने के लिए हम मनुष्य के मोहताज नही हैं। इस हेतु उनने अपना यजमान पशु पक्षियों को बना रखा है, और 80 प्रतिसत वन वही विकसित करते हैं। मनुष्य से उनकी मात्र इतनी अपेक्षा है कि यह दो अदद फुर्सत के हाथ और एक अदद विलक्षण बुद्धि वाला प्राणी उनपर दूर से ही अपनी कृपा दृष्टि बनाए रहे।
नदी के पानी में यूं ही कहुआ (अर्जुन बृक्ष) और जमराशिन नामक (जंगली जमुन ) के बीज बहकर आते हैं ,और उनके किनारे काफी सघन उग कर पानी को वाष्पित होने से बचाते हैं। उनकी जड़े भी इतनी सघन हो जाती हैं जो एक ओर तो नदी के कटाव को रोकती हैं तो दूसरी ओर पानी के बहाव को धीमा कर उन्हें अविरल बहने वाली सदानीरा भी बनाती हैं। नदियों में कहीं उथली तो कहीं गहरी दहारें होती हैं जहां पानी भरा रहता है। वह नदियों का नैसर्गिक स्वरूप होता है। यही कारण है कि जब मनुष्य नदी पहाड़ों का नैसर्गिक स्वरूप नष्ट कर देता हैं तो उन्हें अविरल बहने लायक बनाने में बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। मनुष्य की अब तक की तरक्की का कारण यही है कि उसने जो "अनुभव य अनुसन्धान किया उसे नई पीढ़ी को बताया। नई पीढ़ी ने उसकी समीक्षा की, जो छोड़ने लायक हुआ उसे छोड़ा, शेष में अपने अनुभव और अनुसन्धान को जोड़ती चली गई।" हमें लगता है कि अपने बिगत 50 वर्षो के तथाकथित बिकास की भी अब मनुष्य को पुनः एक बार समीक्षा करने की जरूरत है।
नदी चाहे हमारे इस क्षेत्रकी सतना हो, अमरन हो, टमस हो अथवा अन्य क्षेत्र की हों? उन्हे सदानीरा बनाने के लिए उनके उद्गम स्थल से ही ऐसा उपाय करना उचित होगा कि वहां से लेकर उनके किसी बड़ी नदी में मिलने तक कुछ खास प्रयत्न किए जाएं। किनारे- किनारे पन्द्रह बीस मीटर क्षेत्र तक के भूभाग को अतिक्रमण से मुक्त रख कर वहां जंगल विकसित किया जाय। उसमें यथा संभव केमिकल युक्त पानी बहकर न आए। अगर वह किसानों की भूमि हो तो उन्हें भी पेड़ लगाने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है।
इस तरह यदि कुछ उपयुक्त उपाय किए जाएं तो उन्हे सदनीरा बनाना आज भी संभव है। और अगर हम सुजलम सुफलम गाकर ही उन्हे शुद्ध बनाने का आह्वान करते रहे तो कुछ होने वाला नही है ।






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