राजेश बादल
इटली जल रहा है। फिलिस्तीन को समर्थन देने की माँग के समर्थन में लोग सड़कों पर उतर आए हैं।वहाँ की बहुसंख्यक आबादी फिलिस्तीन को मान्यता देने के पक्ष में है।इन लोगों का सवाल है कि जब ब्रिटेन,फ़्रांस ,पुर्तगाल ,कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे150 देश फ़िलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं तो इटली को क्यों हिचक हो रही है ? वे कहते हैं कि फ़िलिस्तीन को अपना नैतिक और राजनीतिक सहयोग नहीं देने का अर्थ मध्य युग की सामंती बर्बरता को स्वीकार करना है। इटली के साथ केवल जर्मनी खड़ा नजर आ रहा है ।मगर ब्रिटेन एकदम खुलकर फिलिस्तीन के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है।ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने तो साफ साफ कहा है कि ब्रिटेन फिलिस्तीनियों और इजरायलियों के बीच शांति और द्वि - राष्ट्र समाधान को पुनर्जीवित करने के लिए फिलिस्तीन को मान्यता दे रहा है।
यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि इज़रायल फ़िलिस्तीनियों पर वैसे ही ज़ुल्म कर रहा है ,जैसे 1947 से पहले बरतानवी हुक़ूमत ग़ुलाम भारतीयों के साथ करती थी।संयुक्तराष्ट्र की ओर से माना गया है कि फ़िलिस्तीन का गाज़ा क्षेत्र भीषण अकाल की चपेट में है और इज़रायल वहाँ अरसे से क्रूर नरसंहार कर रहा है।दो साल में इज़रायल ने फ़िलिस्तीन के 65000 निर्दोष लोग मार डाले हैं । कह सकते हैं कि बीते दशकों में इज़रायल ने अज़गर की तरह फ़िलिस्तीन का इलाक़ा निगला है और फिलिस्तीन अपने स्वतंत्र अस्तित्व की आख़िरी लड़ाई लड़ रहा है। आंकड़े कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों में से 150 राष्ट्र फ़िलिस्तीन को अलग देश बनाए जाने के पक्ष में हैं। डेढ़ सौ देश एक तरफ और फ़ैसला करने वाले केवल पंद्रह देश देश। पाँच वीटो पावर वाले सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य और शेष अस्थायी सदस्य हैं।इन पंद्रह मुल्क़ों को फ़ैसला करना है कि संयुक्तराष्ट्र अनुच्छेद - 4 के तहत एक नए देश के रूप में फ़िलिस्तीन को मान्यता दे अथवा नहीं ।
अब दो ही सूरतों में फिलिस्तीन अलग देश बन सकता है। एक यह कि पंद्रह में से 9 देश फिलिस्तीन को अलग देश के रूप में मंज़ूर करें और दूसरा यह कि स्थायी पाँच देशों में से कोई वीटो का इस्तेमाल नहीं करे। हालाँकि यह शायद ही कभी संभव होगा। आपको याद होगा कि पिछली बार सुरक्षा परिषद में जब प्रस्ताव आया था तो अमेरिका ने इज़रायल से गहरी दोस्ती के चलते ताबड़तोड़ वीटो कर दिया था।सन्दर्भ के तौर पर यह भी ध्यान में होना चाहिए कि जब 1948 में जब इज़रायल अस्तित्व में आया था तो अमेरिका ने सिर्फ़ 9 मिनट में उसे मान्यता दी थी।इससे पहले 1947 में जब फ़िलिस्तीन का विभाजन हुआ था और इज़रायल टूट कर अलग यहूदी देश बना था तो भारत ने संयुक्तराष्ट्र में सबसे पहले विरोध किया था।उसके बाद से यही इज़रायल फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा करने की कोशिशें करता रहा है।भारत ने तो आधी सदी पहले 1974 में फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन को और 1988 में फ़िलिस्तीन देश को मान्यता दे दी थी। वैसे तो भारत ने 1950 में इज़रायल को मान्यता दे दी थी,लेकिन 1992 तक उसके इज़रायल के साथ कोई कूटनीतिक या राजनयिक रिश्ते नहीं थे।
जहाँ तक भारत और फ़िलिस्तीन के आपसी संबंधों की बात है तो यह मुद्दा भारतीयों के लिए भावनात्मक भी है। फ़िलिस्तीन को मान्यता देने वाले ग़ैर अरब देशों में भारत पहला देश था। मार्च 1980 में इस अभागे मुल्क़ के साथ भारत ने पूर्ण राजनयिक रिश्ते शुरू किए थे। हालाँकि इससे पाँच बरस पहले 1975 में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने राजधानी दिल्ली में एक पूर्णकालिक कार्यालय प्रारंभ किया था। यह संगठन 1964 में शुरू किया गया था। संस्था के अध्यक्ष यासेर अराफ़ात भारत को अपना दूसरा घर मानते थे और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी बड़ी बहन का मान देते थे।एक रोचक क़िस्सा है। जब मार्च 83 में वे गुट निरपेक्ष सम्मेलन में भारत आए तो जॉर्डन के शाह का भाषण उनसे पहले हो गया। इससे यासेर ख़फ़ा हो गए और उन्होंने सम्मेलन के बहिष्कार का फ़ैसला किया। वे विमानतल जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि इंदिरा गाँधी और फिदेल कास्त्रो वहाँ पहुँच गए। कास्त्रो ने कहा कि तुम इंदिरा के दोस्त हो और उसी को नीचा दिखाना चाहते हो। यासेर ने कहा कि इंदिरा उनकी बड़ी बहन हैं ,दोस्त नहीं। इसके बाद उन्होंने स्वदेश लौटने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने आए थे और उन्हें फूट फूट कर रोते हुए देखा गया था।
वे ऐसे शख़्स थे,जिन्होंने राष्ट्राध्यक्ष नहीं होते हुए भी संयुक्तराष्ट्र महासभा को संबोधित किया था।उन दिनों फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन( पीएलओ) को अमेरिका समर्थक लॉबी आतंकवादी संगठन मानती थी।लेकिन भारत ने कभी अपने खुले समर्थन से परहेज़ नहीं किया।फ़िलिस्तीन के साथ हिन्दुस्तानी संबंधों का अतीत आज़ादी से भी पहले का है। सन 1938 में महात्मा गांधी ने कहा था ," फ़िलिस्तीन का अरबों से वैसा ही संबंध है जैसा इंग्लैंड का अंग्रेजी से या फ़्रांस का फ्रेंच से। भारतीयों के कष्ट भी फ़िलिस्तीनियों के दुखों से अलग नहीं हैं "। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ग़ुलामी के दिनों में जेल से अपनी बेटी इंदिरा गांधी को अनेक ख़त लिखे थे।एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि भारत की साम्प्रदायिक समस्या और फ़िलिस्तीन की समस्या अलग नहीं हैं।इसीलिए भारत ने अपनी विदेश नीति में सदैव फ़िलिस्तीन का समर्थन किया है। भारत ने 1996 में गाज़ा में अपना कार्यालय खोला था ,जिसे 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया। यासेर अराफ़ात गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में शिरक़त करने भारत आए थे।उसके बाद से आज तक भारत के फ़िलिस्तीन से संबंध मधुर रहे हैं।
कुल मिलाकर इन दिनों अखिल विश्व फ़िलिस्तीन के साथ खड़ा है और इज़रायल -अमेरिका अलग थलग पड़ते जा रहे हैं।






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