राजेश बादल
इन दिनों हम लोकतंत्र का क्रूर,अमानवीय और अराजक संस्करण देख रहे हैं। उसका यह चेहरा राजशाही दौर के जुल्मों की याद दिलाता है।दुष्ट सामंत क्या करते थे ? उनकी यातना कथाएँ आम जन तक नहीं पहुँच सकें,इसलिए वे लोगों को अभिव्यक्ति से ही रोक देते थे।अत्याचारों की सूचनाएँ सुनकर अवाम भड़के नहीं,इसका पूरा इंतज़ाम वे राजे -महाराजे करते थे। आज संवैधानिक लोकतंत्र में भी पुलिस नाम की संस्था राजाओं और अँगरेज़ी राज के दिनों की याद दिला रही है। मध्यप्रदेश में चंबल क्षेत्र से पत्रकारों के उत्पीड़न की यह हिला देने वाली दास्तान सामने आई है।
भिंड के पुलिस अधीक्षक को अपने ज़िले की पुलिस के बरताव की आलोचना की ख़बरें रास नहीं आईं।यह ख़बरें पुलिस के संरक्षण में हो रहे अवैध रेत खनन और जगह जगह दैनिक , साप्ताहिक और मासिक वसूली के बारे में थीं। चूँकि एस पी मुख्यमंत्री के सजातीय हैं और पुलिस महकमें पर सीधा मुख्यमंत्री ध्यान देते हैं इसलिए पुलिस अधीक्षक के लिए यह चिंता का विषय था। उन पर आरोप यह भी है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक वसूली पहुँचाते हैं। इस आरोप से मुख्यमंत्री की छबि ख़राब होती है इसलिए उन्होंने आलोचना की ख़बरें प्रकाशित /प्रसारित करने वाले पत्रकारों को सबक़ सिखाने की ठानी। उन्हें अपने कार्यालय में सादर बुलाया।इसके बाद उन्होंने एडीशनल एसपी ,सीएसपी ,पाँच थाना प्रभारियों और कुछ अन्य पुलिस कर्मियों को बुलाया। फिर उन्हें निर्देश दिया कि सभी पत्रकारों को चप्पलों से पीटा जाए। पिटाई चलती रही...चलती रही। कुछ पत्रकारों की पेशाब तक निकल गई।
पुलिस अधीक्षक जानते थे कि चप्पलों की पिटाई थोड़ी देर के बाद किसी मेडिकल रिपोर्ट में नहीं आएगी और बदनामी के डर से पत्रकार कुछ नहीं कर पाएँगे। पर,उनका अंदाज़ा ग़लत निकला। पत्रकार ज़िला कलेक्टर के पास गए तो एस पी ने पीछे पीछे पुलिस भेज दी।इसके बाद पत्रकारों ने आपबीती सार्वजनिक मंचों पर शेयर कर दी।इन पत्रकारों के मोबाइल छीन कर उनमें बंद वसूली के सुबूत डीलिट कर दिए गए और उन्हें धमकाया जाने लगा। इसके बाद ये पत्रकार भिंड शहर छोड़कर भाग गए। इसी एस पी पर बालाघाट में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक को पीटने के आरोप लगे थे। इसके बाद उसे हटाकर भिंड भेजा गया था। यह घटना पुलिस के स्याह चेहरे का ख़ुलासा करती है।
लेकिन हालिया दौर में प्रदेश पुलिस की यह पहली घटना नहीं है।सीधी में पत्रकारों को थाने के भीतर निर्वस्त्र किया गया था।कुसूर यह था कि उन्होंने विधायक केदारनाथ शुक्ल की आलोचना वाली खबरें प्रसारित की थीं।राजगढ़ ज़िले के सारंगपुर में एक पत्रकार की हत्या हुई।छतरपुर में एक पत्रकार पर पुलिस अधिकारी ने पेशाब किया,सीधी में एक पत्रकार का माफ़िया ने पुलिस के संरक्षण में घर जला दिया गया।इनके अलावा भोपाल,उज्जैन, अशोकनगर तथा अन्य जगहों से पत्रकारों को सताने की सूचनाएँ मिली हैं।ख़ेद की बात यह है कि पत्रकारों के हित में काम करने वाले संगठन ऐसे अत्याचारों के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध नहीं कर पाते।एक दो स्थानों पर पत्रकार सक्रिय हुए,मगर राज्य सरकार पर दबाव बनाने वाला संघर्ष नहीं छेड़ा गया।हक़ीक़त यह है कि अनेक पत्रकार सरकार और प्रशासन से उपकृत होते हैं।इसलिए वे ऐसे अवसरों पर मौन धारण कर लेते हैं और जब सरकार उन्हें उपकृत नहीं करती तो उनके साथ भी यही बरताव भी होता है। फिर उनके साथ कोई खड़ा नहीं होता मिस्टर मीडिया !