राजेश बादल
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प रूस को सबक़ सिखाना चाहते हैं। इसके लिए वे भारत पर बेतुका दबाव डाल रहे हैं। उन्होंने हिन्दुस्तानी उत्पादों पर पचास फ़ीसदी टैरिफ़ थोपा है। वे अमेरिका फर्स्ट की बात करते हैं ,लेकिन भारत को इंडिया -फर्स्ट की बात नहीं करने देना चाहते। अर्थात ट्रम्प के लिए अपने राष्ट्रीय हित तो सर्वोच्च प्राथमिकता रखते हैं ,लेकिन वे चाहते हैं कि हिन्दुस्तान अपने राष्ट्रीय हितों को उनके मंशा के लिए क़ुर्बान कर दे। ऐसी अपेक्षा संसार का कोई सिरफ़िरा राष्ट्राध्यक्ष ही कर सकता है। मैं नहीं कहता कि भारत को इस अनाप शनाप टैरिफ़ बढ़ोतरी से कोई नुक़सान नहीं होगा। लेकिन अमेरिका की तुलना में भारतीय अर्थ व्यवस्था ऐसे झटकों को बर्दाश्त करने के लिए ज़्यादा मज़बूत है। इसे सिद्ध करने के लिए किसी गणित का फॉर्मूला लगाने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी कुछ जानकारों के लिए याद दिला सकता हूँ कि सोलह साल पहले जब वैश्विक महामंदी आई थी तो अमेरिका में हाहाकार मच गया था ,बैंक डूब गए थे , करोड़ों अमेरिकी गोरों की बैंकों में जमा मेहनत की कमाई मिटटी में मिल गई थी।अमेरिका में दनादन आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया था और सारा देश बदहवासी के आलम में था। दूसरी ओर डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने हिन्दुस्तान पर आँच नहीं आने दी थी।भारत के लिए वह मंदी छोटे -मोटे ट्रिमर्स ( अत्यंत हलके क़िस्म की ज़मीनी हलचल या मामूली कंपन ) जैसी थी और अमेरिका के लिए सुनामी अथवा रिक्टर स्केल पर 8 या 9 पैमाने का भीषण भूकंप। कारण यह कि अमेरिका और भारत की औसत आर्थिक सेहत में बहुत फ़र्क़ है। आम अमेरिकी के लिए रोज़मर्रा की ज़रूरतों में बीयर की एक बोतल ,गाड़ी के लिए डीज़ल -पेट्रोल ,मछली पकड़ने के संसाधन ,उम्दा मोबाईल फ़ोन और शानदार कपड़ों को शामिल कर सकते हैं। मगर औसत भारतीय, दाल रोटी और प्रतिदिन की आवश्यकता के लिए मामूली खर्च से गुज़ारा कर लेता है। एक बानगी पर्याप्त होगी। जब दिसंबर 2007 से जून 2009 के मध्य महामंदी विश्व भर में आई तो अमेरिका में आत्महत्याओं की बाढ़ आ गई थी। यह अनुमानतः 62 फ़ीसदी थी। वहां 2007 में मौतों की संख्या में आत्महत्या ग्यारहवाँ बड़ा कारण था। क़रीब 35000 संपन्न लोगों ने आत्महत्याएँ कीं थीं । उस दरम्यान लगभग पाँच करोड़ लोगों ने बेरोज़गारी भत्ते के लिए आवेदन किया था। बीते पचहत्तर - अस्सी साल में अमेरिका ने ऐसा भयावह दौर नहीं देखा था। भारत ऐसे ज़लज़ले से बचा रहा था।डोनाल्ड ट्रंप ने नोबेल पुरस्कार की वासना में शेष विश्व से जो जंग छेड़ी है ,वह एक तरह से अपनी जांघ उघाड़ने जैसा उपक्रम है। उन्हें इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा।
डोनाल्ड ट्रंप के इस निर्णय से भारत,रूस ,ब्राज़ील ,चीन और दक्षिण अफ़्रीक़ा जैसे बड़े राष्ट्र यक़ीनन उनको धन्यवाद देना चाहेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति के ऐसे बेतुके निर्णयों ने उन्हें आपस में और निकट आने का अवसर दिया है।ब्रिक्स जैसा संगठन अब और ताक़तवर होकर विश्व मंच पर उपस्थित होगा और अमेरिकी टैरिफ़ से होने वाले छोटे मोटे झटकों से उबर जाएगा। बताने की आवश्यकता नहीं कि डोनाल्ड ट्रम्प ब्रिक्स से चिढ़ते हैं। उनकी आँखें उनकी ही रिपब्लिकन पार्टी की कद्दावर नेता निक्की हेली की चेतावनी से भी नहीं खुली हैं।निक्की एक समय अमेरिका की राष्ट्रपति की गंभीर दौड़ में शामिल थीं। वे कहती हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों से अमेरिका की पिछले पच्चीस बरस की मेहनत बेकार चली गई है। भारत न केवल संसार की बड़ी अर्थ व्यवस्थाओं में से एक है, बल्कि डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाला बड़ा बाज़ार है।इसी कड़ी में संसार के सबसे बड़े अर्थशास्त्री जैफरी सैश की चेतावनी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे अमेरिकी हैं और कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने आग़ाह किया है कि भारत पर इतना ज्यादा टैरिफ लगाकर ट्रंप ने अमेरिका का नुकसान किया है। इससे अमेरिका अलग-थलग पड़ जाएगा और उसकी कंपनियों को भारी हानि होगी। प्रोफेसर सैश ने एक साक्षात्कार में कहा कि ट्रंप हिंदुस्तान की बाँह मरोड़ने की कोशिश कर रहे हैं,लेकिन वह कामयाब नहीं होंगे।डोनाल्ड ट्रम्प सोचते हैं कि वे भारत को धमकाकर काम निकाल लेंगे। पर यह समझदारी नहीं है कि वे इतने विराट लोकतांत्रिक देश को भयभीत कर सकते हैं। इससे होगा यह कि भारत अमेरिका से हमेशा के लिए छिटक जाएगा। उन्होंने कहा, 'ट्रंप अमेरिका को वैश्विक अर्थतंत्र से अलग-थलग कर रहे हैं। वह अमेरिका के औद्योगिक क्षेत्र का नुकसान कर रहे हैं। हो सकता है कि उनके इस क़दम से अमेरिकी कंपनियां घरेलू उत्पादन बढ़ा दें , लेकिन वे अंतरराष्ट्रीय बाजार की होड़ से बाहर हो जाएँगी। अमेरिकी राष्ट्रपति अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मार रहे हैं , बल्कि अमेरिका के पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। वह बाकी अपने विरुद्ध दुनिया को एकजुट करने का काम कर रहे हैं।सैश ने कहा कि ट्रंप और उनके सलाहकार हिन्दुस्तान के बारे में ज्यादा नहीं जानते। सैश ने कहा, ' मैं तो भारत में अपने दोस्तों से कहता हूं कि अमेरिका पर ज़्यादा भरोसा न करें। दरअसल अमेरिका को भारत के विकास की कोई परवाह नहीं है '। सैश ने भारत पर ज्यादा टैरिफ लगाने के ट्रंप के फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि यह अमेरिका की विदेश नीति के इतिहास में अब तक का सबसे बेवकूफी भरा फैसला है। इससे अमेरिका को एशिया में भारत जैसे भरोसेमंद साथी से हाथ धोना पड़ सकता है।
अंतिम सवाल यह है कि क्या आज के संसार में कोई विकसित देश अपनी सनक के आधार पर दोहरे मापदंड अपनाते हुए दुनिया को संचालित कर सकता है ? यूरोपीय देश तो रूस से 6 लाख करोड़ का कारोबार कर सकते हैं,खुद संयुक्त राष्ट्र अमेरिका रूस से खाद और रासायनिक उत्पाद खरीद सकता है तो भारत को तेल खरीदने पर वह किस आधार पर रोक सकता है ? ख़ास तौर पर ऐसी स्थिति में कि उसे अपने सबसे बड़े
प्रतिद्वंद्वी चीन के रूस से तेल आयात करने पर कोई ऐतराज़ नहीं है।