राजेश बादल
दुनिया का चौधरी अमेरिका इन दिनों मुश्किल दौर से गुज़र रहा है।आंतरिक अशांति और चुनौतियों से जूझ रहे इस भीमकाय देश की सारी परेशानियों का सबब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं।वे अपने सोच-विचार और कार्यशैली के कारण मुल्क़ के भीतर ही नहीं,बल्कि सारी दुनिया के लिए विकराल संकटों की बौछार कर रहे हैं।विडंबना यह कि अपने व्यवहार में राष्ट्रपति महोदय परिवर्तन नहीं लाना चाहते।उनके कूटनीतिक सलाहकार भी कमोबेश उनकी तरह ही हैं।वे डोनाल्ड ट्रंप के यस मैन की तरह बरताव करते हैं।इसका प्रतिकूल असर अमेरिका ही नहीं,अपितु समूचे विश्व के लोकतान्त्रिक माहौल पर पड़ रहा है।नीदरलैंड के हेग में सोमवार से उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन याने नाटो की बैठक हो रही है।नाटो कभी दुनिया का सबसे ताक़तवर सैनिक सहयोग संगठन था,लेकिन इन दिनों यह इतिहास के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहा है।इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति का रवैया ही ज़िम्मेदार है।
दरअसल नाटो की शिखर बैठक ऐसे माहौल में हो रही है,जबकि तीन साल से भी अधिक समय से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है,मध्यपूर्व में ईरान और इज़रायल के बीच अभी औपचारिक युद्धविराम संशय में है और समूची वैश्विक अर्थ व्यवस्था अस्थिरता के दौर का सामना कर रही है।ऐसे में डोनाल्ड ट्रम्प विचित्र सा दबाव नाटो के सारे सदस्य देशों पर डाल रहे हैं। वे कह रहे हैं कि नाटो के सभी सदस्य देश अपनी जीडीपी का पाँच प्रतिशत रक्षा पर ख़र्च करें।इससे पहले वे दो प्रतिशत की बात करते थे।नाटो के देशों को उनका रवैया बेतुका लग रहा है। कभी वे कहते हैं कि अमेरिका के पैसे पर नाटो देश सुविधाएँ भोग रहे हैं तो कभी कहते हैं कि जो राष्ट्र इतना पैसा रक्षा पर ख़र्च नहीं करेंगे तो वे रूस से उनका बचाव नहीं करेंगे,उल्टे रूस को उन पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित करेंगे।ऐसे अटपटे मिजाज़ वाले व्यक्ति का कोई संगठन कर भी क्या सकता है ? पिछले कार्यकाल में वे यहाँ तक धमका चुके हैं कि यदि नाटो के देश उनकी बात नहीं मानते तो वे नाटो से अलग होने में पल भर की देर नहीं करेंगे।
नाटो देशों के प्रति अमेरिकी राष्ट्रपति का यह अहंकारी रवैया बेवजह भी नहीं है। व्यावहारिक तौर पर अमेरिका समूचे यूरोपीय देशों को किसी भी परमाणु हमले से बचाव की गारंटी देता रहा है।यूरोप के राष्ट्रों पर रूस के परमाणु हमले का संकट बना रहता है। मगर,यह स्थिति तो1945 के बाद से ही बन गई थी,जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने परमाणु बम गिराए थे।उसके बाद से ही अमेरिका परमाणु हथियारों का अकेला स्वयंभु चौकीदार बना हुआ है।नाटो के देश भी यह तथ्य जानते हैं,लेकिन डोनाल्ड ट्रंप जिस सामंती और धौंस डपट का प्रदर्शन करते हैं,वह 2025 का यूरोप स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।अतीत में इक्का-दुक्का घटनाएँ अवश्य हुईं,जब अमेरिका के अधिनायकवादी सोच का नाटो के सदस्यों ने विरोध भी किया।लेकिन बाद में अमेरिका ने उनको मना लिया।पर,डोनाल्ड ट्रंप तो इतने ज़िद्दी और हेकड़ीबाज़ हैं कि वे इसकी ज़रुरत भी नहीं समझते।सबसे पहले अमेरिका और उसके पिछलग्गू ब्रिटेन के नाटो में रौब का फ़्रांस ने विरोध किया था और 1966 में नाटो से अपने को अलग कर लिया था।फ़्रांस का कहना था कि उसकी संप्रभुता अमेरिका के कारण ख़तरे में है।उन्होंने अपने देश से नाटो का कार्यालय और अमेरिकी सैनिकों को हटा दिया था।क़रीब सोलह बरस पहले अमेरिका ने फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी को मनाया।उसके बाद फ़्रांस फिर से नाटो में शामिल हुआ।अमेरिका से खफ़ा ग्रीस ने भी नाटो से कुट्टी कर ली थी। जब 1974 में साइप्रस में तख़्तापलट हुआ तो उसे ग्रीस का समर्थन था। इससे तुर्किए क्रोध में आया और उसने साइप्रस पर हमला करके उसके एक तिहाई इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया।आज भी यह इलाक़ा उसके क़ब्ज़े में है।ग्रीस और तुर्किए नाटो में थे। ग्रीस को लगा कि अमेरिका चाहता तो तुर्किए को रोक सकता था।उसने नाटो से सैन्य सहयोग का नाता तोड़ लिया।छह साल बाद अमेरिका ने मनाया और ग्रीस फिर नाटो में शामिल हो गया।तीसरा अवसर आया,जब तुर्किये ने रूस से एस-400 मिसाइल रक्षा तंत्र खरीदा था।अमेरिका ने इसे नाटो के लिए खतरा बताया क्योंकि नाटो तो रूस से बचाव के लिए ही बना था।तुर्की को एफ -35 लड़ाकू जेट कार्यक्रम से बाहर कर दिया।इसी तरह हंगरी की रूस से स्वाभाविक निकटता अमेरिका को कभी नहीं पोसाई।
इन अतीत कथाओं को लिखने का मक़सद यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने सारे पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से अलग हैं।अमेरिका में उन्हें झूठा और पाखंडी कहा जाने लगा है।वे इसीलिए अपने देश के इतिहास में सर्वाधिक अलोकप्रिय राष्ट्रपति हैं।वे हेग शिखर सम्मेलन में चाहेंगे कि नाटो देश उनके इशारे पर नाचें.लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई देता। स्पेन और कनाडा ने रक्षा बजट बढ़ाने की माँग खारिज़ कर दी है। ट्रंप ने अपनी शैली में उत्तर देते हुए कहा कि नाटो स्पेन और कनाडा से निपट लेगा। नाटो ने एक महीने में 3 लाख सैनिक बढ़ाने का ऐलान किया है। नाटो के महासचिव कह चुके हैं कि अब रूस से निपटने की बारी है।
सन्दर्भ के तौर पर बता दूँ कि इज़राइल नाटो का सदस्य नहीं है लेकिन उसे प्रमुख ग़ैर नाटो सहयोगी का दर्ज़ा दिया गया है।उस पर अमेरिका दशकों से मेहरबान है।आँकड़े कहते हैं कि 2022 में उसे अमेरिका ने 4.8 अरब डॉलर की मदद दी थी।लेकिन पिछले साल जो बाइडेन ने इज़राइल को 18 खरब,47 अरब ,15 करोड़ 19 लाख रूपए याने 22.76 बिलियन डॉलर की सहायता दी।एक बरस में इतनी बढ़ोतरी और नाटो के सदस्य देशों को रक्षा बजट बढ़ाने का ट्रंपी निर्देश आने वाले दिनों के लिए आशंकाओं को जन्म देता है।