राजेश बादल
ऐसा लगता है कि संसार की शिखर संस्थाएँ अब अंतिम साँसें ले रही हैं।वे अपना मूल चरित्र और मक़सद खो बैठी हैं।अब यह संस्थाएँ कूटनीतिक और राजनयिक स्वार्थों से संचालित हो रही हैं।इसका नुक़सान समूचे संसार को हो रहा है।सबसे ज़्यादा स्वतंत्र हैसियत बनाए रखने वाले मुल्क़ इसका शिकार हो रहे हैं।इन संस्थाओं का परदे के पीछे से संचालन अमेरिका जैसे बड़े और विकसित देश कर रहे हैं। वे इस संगठन को चलाने के लिए सबसे अधिक धन भी देते हैं। इसी आर्थिक मदद के कारण वे ऐंठे रहते हैं और दुनिया को अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं। यह एक गंभीर चेतावनी है कि आने वाले समय में संसार को ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
विश्व की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्तराष्ट्र से बात शुरू करते हैं।इसका अतीत आतंकवाद विरोधी संकल्पों से भरा पड़ा है।पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश के बारे में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कई बार निर्णायक राय बन चुकी है।एक समय यह देश अपनी नीतियों के चलते वैश्विक समुदाय से अलग थलग पड़ गया था।उसकी अपनी नीतियों ने ही उसे बदहाली के गर्त में धकेल रखा है।ताज्जुब है कि अब वही पाकिस्तान सुरक्षा परिषद के अस्थायी अध्यक्ष की भूमिका निभाता है और आतंकवाद विरोधी पक्ष में जाकर बैठता है।सिर्फ़ इसीलिए कि अमेरिका ऐसा चाहता है। अब वह अपने स्वार्थों की ख़ातिर पाकिस्तान को जेब में रखना चाहता है।वैश्विक कल्याण की चिंता करने वाली इस संस्था ने कभी लंबे समय तक चलने वाले कोरिया युद्ध को समाप्त कराने के लिए भारत की सहायता से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।कुछ अन्य अवसरों पर भी उसने अंतर्राष्ट्रीय तनाव या जंगी हालात से निपटने में अपनी सार्थकता सिद्ध की है।लेकिन अब उसे रूस और यूक्रेन के बीच तीन साल से जारी जंग नहीं दिखाई दे रही है।फिलिस्तीनियों का दर्द नहीं दिखाई देता और एक अमेरिका दादागीरी दिखाते हुए मनमाने ढंग से किसी भी देश पर कोई भी प्रतिबन्ध लगा देता है।यह शिखर संस्था उस पर कोई कार्रवाई नहीं करती।इसीलिए भारत समय समय पर चेतावनी देता रहा है कि अगर संयुक्त राष्ट्र ने कार्यशैली नहीं बदली तो यह ग़ुमनामी में खो जाएगा। हिन्दुस्तान ने तो यहाँ तक कहा है कि इससे संयुक्त राष्ट्र संगठन ही ख़तरे में पड़ जाएगा और विश्व के तमाम देश वैकल्पिक रास्ता चुनने के लिए आज़ाद होंगे।यह स्थिति अच्छी नहीं है।यह संकेत करती है कि जिस उद्देश्य से इस वैश्विक संस्थान का गठन किया गया था,वह पूरा नहीं हो रहा है।छोटे-बड़े मुल्क़ों में गुस्सा है।अब यह आर्गेनाईजेशन चंद देशों की जेब में बैठा नज़र आता है। भारतीय चेतावनी को बड़े राष्ट्र समर्थन देते रहे हैं। मगर तब भारत और अमेरिका के रिश्तों में तल्खी नहीं थी।इसलिए नहीं कहा जा सकता कि यह समर्थन कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा। उदाहरण के तौर पर ब्रिटेन ने भारत से सहमति जताई थी और माना था कि वीटो पावर ही सुधार के रास्ते में बाधा है। समूह -चार के ब्राज़ील,जापान और जर्मनी ने भी भारत की बात से सहमति प्रकट की। ये देश भारत से सहमत थे कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सुधार नहीं हुए तो सदस्य देश बाहरी समाधान खोजने लगेंगे।यह बूढ़ों के क्लब जैसा हो गया है। पाँच देश नहीं चाहते कि उन पर कोई ऊँगली उठाए अथवा उनके मामलों में टांग अड़ाए।लेकिन अब यही देश चुप्पी ओढ़े हुए हैं।
इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर की एक और शिखर संस्था फायनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स है। करीब साढ़े तीन दशक पुरानी इस संस्था में 37 देश हैं।मुख्यालय पेरिस में है।इसका गठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनीलॉन्ड्रिंग और आतंकवाद का वित्त पोषण करने वालों पर लग़ाम लगाना है।भारत भी इसमें है।पाकिस्तान नहीं है।अनेक दशक से पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण दे रहा है।एफएटीएफ ने दस बरस में इसके सुबूत जुटाए हैं। इस कारण 2012 से 2015 के बीच पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाल दिया गया।इसके बाद 2018 से फिर ग्रे सूची में रखा गया।कई चेतावनियों के बाद भी उसके रवैए में सुधार नहीं आया।हालाँकि इस नीति से उसकी आर्थिक शक़्ल बदरंग हो चुकी है।पर वह नीति छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।इसके बावजूद पाकिस्तान को 2022 में ग्रे सूची से बाहर कर दिया गया। याने अब आतंकवाद को पालने पोसने वाले मुल्क वैश्विक शिखर संस्थाओं के लिए कोई मतलब नहीं रखते। ऐसे में इस संस्था से भी कौन उम्मीद करे ? इस तरह टास्कफ़ोर्स की गाड़ी भी पटरी से उतरी हुई है।भारत पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा चुका है,पर कोई उपाय काम नहीं आया ।पहलगाम संहार के बाद भी वह ग्रे सूची से बाहर है।बीते दिनों इस संगठन का मुखिया चीन था ।उसने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया और बचाया।अब भी इस मंच का दुरूपयोग वह अपने देश की विदेश नीति के आधार पर कर रहा है।मलेशिया और तुर्की जैसे देश तक इस मामले में चीन के साथ हैं।उनके इस रुख की एशिया पेसिफिक ग्रुप ने आलोचना की थी और पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने का समर्थन किया था।लेकिन नतीजा नहीं निकला।चीन की अध्यक्षता समाप्त होने के बाद सिंगापुर और अब मैक्सिको नए अध्यक्ष के रूप में सामने है ।लेकिन उससे भी कोई उम्मीद बेकार है।
कमोबेश यही हाल अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का है।दिवालिया होने के क़गार पर पाकिस्तान खड़ा है।नियमानुसार वह कोष से क़र्ज़ हासिल करने का पात्र नहीं है।लेकिन पहलगाम में पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद भी मुद्रा कोष उस पर मेहरबान है।भारतीय विरोध को दरकिनार करते हुए उसने बीती 9 मई को पाकिस्तान को अतिरिक्त 1 अरब डॉलर कर्ज की मंजूरी दी है। मुद्राकोष ने कहा कि वह संतुष्ट है कि पाकिस्तान ने क़र्ज़ प्राप्त करने के सभी नियमों का पालन किया है। मुद्राकोष ने भारत के विरोध पर ध्यान नहीं दिया कि पाकिस्तान इस क़र्ज़ से हथियार ख़रीदेगा और उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करेगा।