• डॉ. सुधीर सक्सेना
छह अगस्त, सन 1945। वह विश्व इतिहास का सबसे स्याह दिन था, जब विश्व के इतिहास में परिदृश्य में तेजी से उभरी महाशक्ति सामरिक, नैतिक और मानवीय दृष्टि से जघन्य अपराध करने जा रही थी। सूर्योदय के देश जापान में इस दिन सूरज हमेशा सा उगा, लेकिन कुछ ही घंटों के भीतर वातावरण कलुष और क्रंदन में डूब गया। चिड़ियों की चहचह और कलियों का चटखना शांत भी न हुआ था और नागरिक अपने-अपने लाम की ओर अग्रसर थे कि अमेरिका ने जापान के प्रमुख नगर हीरोशिमा पर एटम बम गिरा दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति की हरी झंडी के बाद यह ऑपरेशन लिटिल ब्वॉय का नतीजा था। जर्मनी मित्र-राष्ट्रों के समक्ष 8 मई को घुटने टेक चुका था, लेकिन अदम्य साहस के धनी जापान का प्रतिरोध जारी था। इस पर मित्र राष्ट्रों ने जापान पर ध्यान केंद्रित किया। फलत: लिटिल ब्वॉय को अंजाम दिया गया और जब इससे भी बात नहीं बनींत तो तीन दिन बाद नौ अगस्त को अमानुषिक अपराधों की दूसरी कड़ी ‘फैट मैन’ के तहत नागासाकी पर एटम बम गिराया गया। लिटिल ब्वॉय से जहां रूजवेल्ट अभिप्रेत थे, वहीं फैटमैन से विंस्टल चर्चिल। इस दोहरे एटामिक हमले ने जापान की कमर तोड़ दी और अंतत: उसने 15 अगस्त को आत्मसमर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये।
एटम बम गिराना यानि कहर बरपाना। बम पहले हीरोशिमा पर गिरा और फिर नागासाकी पर। यानि दोहरा कहर। एटम बम का पहला प्रायोगिक नहीं, वरन सामरिक व व्यावहारिक परीक्षण। बम का अर्थ था विनाश का तांडव। हीरोशिमा में 90,000 से 166,000 लोग ठौर मारे गये और नागासाकी में 60,000 से 80,000 लोग काल-कवलित हुये। दोनों नगरों में चतुर्दिक रेडियोधर्मी धूल के बादल छा गये। नगर तबाह हो चुके थे। करीब ढाई लाख लोग मारे गये थे। इनमें अधिकांश नागरिक थे, निर्दोष, शांतिप्रिय और कौटुंबिक। हीरोशिमा-नागासाकी अब चहलपहल और हँसीखुशी की रोशन से भरे सस्पंद शहर नहीं थे, वरन अब वे वीरान, भुतहा और कराहों में डूबे ऐसे अभिशप्त शहर थे, जहां सामान्य नागरिक नहीं, वरन रेडियोधर्मिता के विकार से ग्रसत बदनसीब ‘हिबाकुशा’ रहते थे। जीवन जीने की गनबाते अवधारणा के बूते ये नगर विध्वंस की राख के ढेर से फीनिक्स पक्षी की भांति फिर उठ खड़े हुये, लेकिन क्या इससे विश्व-मानवता के प्रति किया गया विराट अपराध क्षम्य या कमतर हो जाता है?
अमेरिकी राष्ट्रपति टू मैन ने ‘लिटिल ब्वॉय’ की अनुमति दी तो इसके कई कारण हो सकते हैं। विश्व युद्ध में निर्णायक विजय, अमेरिकी प्रभुत्व की दंभोक्ति और खर्चीले परमाणु अभियान के औचित्य की तस्दीक, लेकिन लोकतंत्र, समता और स्वाधीनता के ध्वजवाहक के माथे कलंक लग चुका था। शांति का कपोत निष्प्राण था। स्वयं अल्बर्ट आइंसटीन क्षुब्ध और आहत थे। वह परमाणु बम के विकास में अपनी भूमिका को लेकर ग्लानि में डूबे हुये थे। एटामिक-विनाश ने उन्हें शांति, नि:शस्त्रीकरण और वैश्विक-सरकार का हिमायती बना दिया था। जर्मनी से उनके विवश-पलायन और अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पत्र की अलग गाथा है, लेकिन हीरोशिमा-कांड से शोकाकुल आइंसटीन का सपना क्या पूरा हुआ? क्या आज परमाणु आयुधों की दौड़ तेज नहीं हुई है और यह होड़ विश्व में यत्र-तत्र विनाश के डरावने और स्याह गुल नहीं खिला रही है?
सन 1945 के मध्यवर्ती मास में हीरोशिमा-नागासाकी में हादसा हुआ। लगा कि जमीन वंध्या हो गयी है। धरती फिर अंगड़ाई नहीं लेगी, लेकिन करीब एक छमाही में ही वसंत आया तो ‘क्योचिकूतो’ यानि कनेर फिर खिल उठे। यह मृत्यु पर जीवन की जय थी। विनाश पर सृजन का उदघोष था। कनेर अभी भी फूलते हैं और विनाश की गाथा के ज़र्द पन्नों के प्रतीक नगरों में नागरिकों को 79 वर्ष पहले की अमानुषिक त्रासदी की याद दिलाते हैं। हिरोशिमा में एटम बम छह अगस्त को प्रात: सवा आठ बजे गिराया गया था। आज सारी दुनिया में हीरोशिमा-दिवस मनाया जाता है। सुबह-सबेरे सवा आठ बजे से प्रार्थना-सभाओं का अविराम-क्रम शुरू हो जाता है। हीरोशिमा में सन 1945 में छह अगस्त और नागासाकी में नौ अगस्त की सुबह अन्य पूववर्ती सुबहों से भिन्न थी। उनके स्मारक बनाये गये, जहां लोग जुटते हैं। मगर प्रश्न कई हैं। अबूझे, किंतु जरूरी प्रश्न। आज दुनिया रणक्षेत्र में बदलती जा रही है। शांतिप्रिय राष्ट्रों और राष्ट्र–नायकों पर युद्ध का उन्माद तारी है, जबकि दुनिया में शांति, इनोची या मीर की ज्यादा जरूरत है। क्या दुनिया में पिछले आठ दशकों में ऐसा कुछ सार्थक या ठोस हुआ है कि दुनिया आश्वस्त हो कसे कि विश्व में हीरोशिमा के हादसे की पुनरावृत्ति नहीं होगी?