राजेश बादल
दूसरे कार्यकाल में भी डोनाल्ड ट्रंप का बड़बोलापन और झूठे बयान अब अमेरिका को भारी पड़ने लगे हैं। ट्रंप की सनक और विशुद्ध व्यावसायिक सोच उन देशों में ही अमेरिका को अलोकप्रिय बना रही है ,जो अभी तक उसके पिछलग्गू रहे हैं या उसके इशारों पर नाचते रहे हैं । इसके अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति अपने मित्र देशों की नाराज़गी मोल लेते जा रहे हैं । भारत भी इनमें से एक है ।पाकिस्तान के साथ भारत की जंगी झड़पें रोकने के लिए उन्होंने पहल तो की पर ,जिस तरह से अपने को प्रतिष्ठित तथा महिमा मंडित करने का प्रयास किया ,वह किसी भी मित्र देश को रास नहीं आया । मित्र को नीचा दिखाकर अपनी छबि बेहतर बनाने का प्रयास किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए । सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश का प्रसारण होने से चंद मिनट पहले डोनाल्ड ट्रंप ने एक बेहद आपत्तिजनक वीडियो संदेश जारी कर दिया ।इस संदेश में उन्होंने कहा कि जंगी झड़पें रोकने के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान को यह चेतावनी देनी पड़ी थी कि यदि उन्होंने युद्ध विराम नहीं किया तो अमेरिका दोनों मुल्कों के साथ कारोबार बंद कर देगा ।अगर वे युद्ध विराम करते हैं तो फिर अमेरिका अपना कारोबार जारी रखेगा। इसीलिए यह युद्धविराम हुआ ।देखा जाए तो यह भी एक तरह से झूठ ही है । इसीलिए भारत को कुछ घंटे बाद ही खंडन करना पड़ा कि अमेरिका ने ऐसा कुछ नहीं कहा था । इससे दो तीन दिन पहले उन्होंने कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता की बात कही थी । भारत ने उसे भी खारिज़ कर दिया था ।उनके दफ़्तर ने शायद नहीं बताया कि कश्मीर के मामले में भारत ने कभी तीसरे देश या पक्ष की मध्यस्थता मंज़ूर नहीं की है। यह भारत की घोषित नीति रही है।डोनाल्ड ट्रंप ने तो यह भी कहा था कि दोनों मुल्कों के बीच कश्मीर का यह विवाद सदियों पुराना है।शायद वे भूल गए थे कि पाकिस्तान विश्व के नक्शे में 1947 में ही प्रकट हुआ था ।इस लिहाज़ से तो अभी एक सदी भी पूरी नहीं हुई है ।
बहरहाल ! युद्ध विराम के पीछे की कहानी अभी सामने आनी बाक़ी है। पर दो उदाहरणों का ज़िक्र तो किया जा सकता है।यह दोनों उदाहरण ट्रम्प के पूँजीपति वाले रौब को खारिज नहीं करते। यह मात्र संयोग नहीं माना जा सकता कि पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से युद्ध विराम से ठीक पहले बीस हज़ार करोड़ रूपए का क़र्ज़ देने का ऐलान हो गया ।पिछले 35 साल में 28 साल अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण ले चुके पाकिस्तान को पहले तो आई एम एफ एक पैसा भी देने के लिए तैयार नहीं था। आज भी यह तय है कि पाकिस्तान अगले 50 साल तक इस क़र्ज़ को चुकाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए यह डूबते को तिनके का सहारा ही था।दरअसल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में मदद के लिए 85 फ़ीसदी मत प्रस्ताव के पक्ष में होने चाहिए और अमेरिका की कुल वोट शक्ति 16.5 प्रतिशत है। याने अमेरिका की वोट शक्ति के बिना सारे 191 सदस्य देश मिलकर भी प्रस्ताव को गिरा नहीं सकते थे क्योंकि वे 85 फ़ीसदी के आंकड़े को छू नहीं पाते।दूसरी तरफ़ भारत के लिए धन से अधिक ज़रूरी सम्मान था। इसीलिए वर्ल्ड बैंक ने सिंधु जल संधि पर पर अपने को अलग कर लिया। इस शिखर संस्था पर भी अमेरिका की पकड़ है।इसमें भी ट्रंप का हाथ बताया जाता है। चर्चा के लिए आमने सामने लाने के लिए ट्रंप की यही नीति है। दोनों पक्षों को कुछ कुछ दे दो और अपनी मर्ज़ी की शर्तों पर दस्तख़त करा लो। यह बात उन्होंने अपनी किताब द आर्ट ऑफ़ डील में भी लिखी है।ज़ाहिर है पाक और भारत के बीच युद्ध विराम तथा उसके बाद बड़बोले बयानों के पीछे उनकी सेठ वाली मानसिकता है। दुनिया के सबसे सभ्य और आधुनिक लोकतंत्र के नुमाइंदे की नहीं।युद्धविराम में अगर कोई भूमिका ट्रंप की हो सकती है तो यही हो सकती है। इसीलिए वे बार बार अपने गाल बजा रहे हैं कि उन्होंने यह जंग रुकवा दी। मेरे आकलन में तो यह कुल प्रसंग ऐसा ही था कि दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर ने फायदा उठा ले गया ।
पर उनकी दूसरी पारी प्रारंभ होने से पहले ही उनके खोखले दावे उजागर होने लगे थे।अपने चुनाव प्रचार के दरम्यान उन्होंने कहा था कि अगर वे राष्ट्रपति चुने गए तो रूस और यूक्रेन के बीच तीन साल से जारी जंग को 24 घंटे में ही समाप्त करा देंगे। वे राष्ट्रपति तो महीनों पहले बन गए,पर युद्ध अभी भी जारी है। इसी तरह उन्होंने कहा कि कनाडा को अमेरिका का 51 वां प्रदेश बन जाना चाहिए और वहाँ के प्रधानमंत्री को उस प्रदेश का गवर्नर। इससे पूरा कनाडा भड़क गया और मार्क कार्नी की लिबरल पार्टी हारते हारते जीत गई।इस जीत के पीछे इसी मुद्दे का हाथ था। अब डोनाल्ड ट्रंप मार्क कार्नी को बराबरी की मेज़ पर बिठाकर वार्ता कर रहे हैं। ऐसे ही उन्होंने कहा कि 25 साल पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की बेवकूफ़ी से पनामा अमेरिका के हाथ से निकल गया।उनके इस कथन का चीन के संरक्षण में पल रहे पनामा के राष्ट्रपति ने विरोध किया तो उसका ट्रंप को उत्तर देते नहीं बना। मैं इसी स्तंभ में उल्लेख कर चुका हूँ कि पहले कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप रोज़ 21 झूठ बोलते थे। जब एक अख़बार ने यह तथ्यात्मक दस्तावेज़ अपने अख़बार के कई पन्नों में प्रकाशित किया तो वह 27000 झूठ से भी अधिक था। ट्रंप इससे बिलबिला गए। लेकिन , क्या कर सकते थे।
असल में उनके भीतर बैठा पूँजीपति अभी भी राष्ट्रपति पद पर हावी है।उनके व्यवहार से स्पष्ट है कि अमेरिका के साथ अब रिश्ते सामान्य नहीं रहने वाले नहीं हैं।और सबसे पहला संकेत तो विश्व व्यापार संगठन ( डब्ल्यू टी ओ ) में भारत ने दे ही दिया है। बीते दिनों जब ट्रंप ने 26 फ़ीसदी टैरिफ भारत पर लगाया था तो उस समय भारत ख़ामोश रहा था। मगर,अब भारत ने संगठन की डिस्प्यूट सेटलमेंट बॉडी को बता दिया है कि वह भी अमेरिका पर जवाबी टैरिफ लगाएगा।ज़ाहिर है आने वाले दिन दोनों मुल्कों के बीच मधुरता का संकेत नहीं देते।