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Added on : 2025-09-08 11:27:02

        स्वामी धर्मबन्धु

सत्य सनातन वैदिक संस्कृति का प्रमुख सिद्धान्त यह है कि जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। संस्कार से वे द्विज यानी श्रेष्ठ बनते हैं - ' जन्मना जायते शूद्र: संस्काराद् द्विज उच्यते |' 

(स्कंद पुराण ,नागरखंड अध्याय२३९/श्लोक ३१)

मानवी माता से जन्म लेने मात्र से कोई मनुष्य नहीं बन जाता है; अपितु संस्कार ही व्यक्ति को मनुष्य बनाते हैं |

सन्तान को जन्म देने में महानतम योगदान पिता का होता है , परन्तु संस्कारदात्री माता ही होती है |

जीवन और विद्या के अनुभव से संस्कार की पुष्टि होती है | एक प्रसिद्ध उक्ति है - ' ऋणं ह वै जायमान: ' जो भी मनुष्य पैदा हुआ है, वह ऋणस्वरूप है। 

ऋण भी तीन प्रकार के होते हैं -

1. देव ऋण - अर्थात् प्राकृतिक संसाधनों का ऋण । तात्पर्य यह है कि जिसे आप बना नहीं सकते यानी पैदा नहीं कर सकते , उसे मिटाने का आपको कोई नैतिक अधिकार नहीं है। जैसे - मनुष्य ,पशु , पक्षी इत्यादि 

2.ऋषि ऋण - अर्थात् विद्या अध्ययन और अनुसंधान करें तथा उसका समुचित उपयोग एवं प्रसार करें ।

3. पितृ ऋण - अर्थात् माता- पिता और गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा और सन्तति का विस्तार करें ।

इन सब ऋणों से उऋण होने पर ही मनुष्य धनी होता है, तभी वह धनी से धन्य होता है । इसके लिए संस्कार, संस्कृति और सभ्यता के प्रति अटूट दृढ़ विश्वास और श्रद्धा रखनी पड़ती है। 

संस्कारों से ही व्यक्ति का चरित्र निर्मित होता है और चरित्र से मनुष्य महान् बनता है | 

भारतीय सभ्यता एवं परम्परा में चरित्र को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है | जैसा कि यजुर्वेद में उपदेश किया गया है -- 

' वाचं॑ ते शुन्धामि प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ चक्षुस्ते॑ शुन्धामि॒ श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒ नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ मेढ्रं॑ ते शुन्धामि पा॒युं ते॑ शुन्धामि च॒रित्राँ॑स्ते शुन्धामि ॥' 

   (यजुर्वेद ६/१४)

१.वाचं॑ ते शुन्धामि -हे मानव ! अपने वाणी को पवित्र करो अर्थात् सर्वदा सत्य संभाषण करने का प्रयत्न करो यानी बोलने से पहले सोचो तथा सोच कर सदैव सर्व हितकारी, प्रिय एवं सत्य वचन बोलो ।

२. प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ - शरीर में रक्त,जल तथा वायु का संचार यथोचित हो। इसके लिए नित्यप्रति प्राणायाम का अभ्यास अवश्य करो ।

३. चक्षुस्ते॑ शुन्धामि॒- आँख को पवित्र रखो अर्थात् कोई पुरुष अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी भी स्त्री को देखे तो माँ, बहन और पुत्री के रूप में देखे। इसी प्रकार स्त्री भी अपने पति के अतिरिक्त किसी पुरुष को देखे तो पिता, पुत्र और भाई के रूप मे देखे और सभी प्राणियों से मित्रवत् व्यवहार करे। 

4. श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒ - अपने कान से हमेशा सत्य , हितकारी और पवित्र वचनों का श्रवण करो । इस विषय में आचार्य चाणक्य के विचार स्तुत्य हैं। वे कहते हैं कि सज्जन पुरुष का समय विद्याध्ययन,चिंतन-मनन,कर्तव्यनिष्ठा इत्यादि में व्यतीत होता है, परन्तु दुष्ट व्यक्ति का समय किसी की निन्दा, बुराई, चुगली और अश्लीलता एवं अनैतिक व्यवहार में व्यतीत होता है।

५. नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ - आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर के जीवन एवं स्वास्थ्य का आधार पाचनतंत्र है। शरीर के समस्त नस-नाड़ियों का केंद्रबिंदु नाभि स्थान है। अत: इसे स्वस्थ एवं पवित्र रखो। 

6. मेढ्रं॑ ते शुन्धामि - वंशवृद्धि का आधार स्तंभ उपस्थ है। अत: इसे संयमित रखो और उचित उपयोग करो।  

 ७. पा॒युं ते॑ शुन्धामि- अर्थात् गुदा मार्ग को स्वच्छ एवं पवित्र रखो । तात्पर्य यह है कि उपस्थ एवं गुदा से अप्राकृतिक और अनैतिक कुकृत्य मत करो। इन सभी नियमों एवं सिद्धान्तों का विधिवत् पालन एवं आत्मसात् करना ही चरित्र की शुद्धता है। महर्षि मनु ने यह भी कहा है कि एक भी चारित्रिक दोष से मनुष्य नष्ट हो जाता है । छिद्रेण नश्यते नर : अर्थात् चरित्र व्यक्ति को श्रेष्ठ बनाता है। 

 

संस्कार ही मनुष्य को उदारचरित बनाते हैं जो अपने और पराये का भेद नहीं करते और संपूर्ण वसुधा को ही कुटुम्ब यानी परिवार की तरह मानते हैं, वे महान् है।

*अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम् |*

*उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||*

*(महोपनिषद्,अध्याय 4, श्लोक 71)*

इसी तथ्य का दिग्दर्शन बाइबल में इस प्रकार किया गया है - Matthew 22:39

Thou shalt love thy neighbour as thyself.

अर्थात् तुम अपने पड़ोसियों से अपने समान प्रेम करो अर्थात् आपके समीप में किसी भी पूजा पद्धति, जाति या संप्रदाय का व्यक्ति हो उसका अपमान मत करो ,अपितु उससे स्वयम् की भाँति प्रेम तथा उसका सम्मान करो। इस आशय को हम इस्लाम से इस प्रकार समझते हैं कि आपका पड़ोसी भूखा न सोए। यदि आपका पड़ोसी भूखा सोता है तो आपको जन्नत नसीब नहीं होगा, पड़ोसी तो किसी भी मत मतान्तर का हो सकता है पर उसका ख्याल रखना ही मानवता है।

 

विश्व का महान शिक्षा संगठन (UNESCO) ने भी अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि-

“ Education to be rooted in culture and committed to progress"

अर्थात् शिक्षा की जड़ें अपने संस्कार एवं संस्कृति में हो; परंतु विकास के प्रति प्रतिवद्धता हो ।किसी भी स्थिर, प्रगतिशील एवं शान्तिमय राष्ट्र के लिए ये चार आधार स्तम्भ हैं - 

1.Honesty towards commitment :-अर्थात् प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदारी ,Should be honesty in action & honesty in conduct. You should not only be honest but also appear to be honest. अर्थात् कर्म और आचरण में ईमानदारी होनी चाहिए; परंतु आपको केवल ईमानदार होना पर्याप्त नहीं है परंतु ईमानदारी आपके आचरण में भी दिखाई पड़नी चाहिए ।

2 . Respect for constitution, system or law and order. अर्थात् 

संविधान, व्यवस्था और कानून के प्रति सम्मान ।

3. Respect for education & educational institutions . अर्थात् शिक्षा और शिक्षण संस्थानों के प्रति सम्मान।

4. Respect for meritocracy. अर्थात् योग्यता के प्रति सम्मान।

 

संस्कार मनुष्य को इतना सक्षम बना देते हैं कि वह प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठ बना दे। जैसे कि महात्मा गाँधी जी ने लिखा है- " मेरी अनपढ़ माँ, परन्तु मेरी समझदार माँ ने मुझे बचपन में सिखाया था कि अगर तुम किसी के काम आ सकते हो, किसी के जीवन को बचा सकते हो, किसी की सहायता कर सकते हो, तभी तुम्हारा जीवन सफल है। “ My illiterate mother but my wise mother, she taught me earlier, If you can help somebody in life only then your life is worth- living”(collected works of Mahatma Gandhi Vol-40 page 126)

7 मई 2007 को Bill Gates ने अपने doctorate की मानद उपाधि के अवसर पर Harvard University के अन्तर्गत अपने अनुभव इस प्रकार व्यक्त किए- ”जो शिक्षा मेरी माँ ने मुझे दी, वह शिक्षा मुझे इस ईंट- पत्थर के जंगल हार्वर्ड से नहीं मिली। पढ़ाई में कमज़ोर होने के कारण ज़ब मुझे युनिवर्सिटी नें कैम्पस सें निकाल दिया था। तब उन्होने मुझें समझाया था कि महत्त्व यह नहीं है कि तुम्हारे पास स्टोर क्या है, तात्पर्य यह है कि जो क्षमता तुम्हारे पास है उसका तुम उपयोग कैसे करते हो?" इस शिक्षा ने मेरे जीवन को परिवर्तित कर दिया । मेरे साथ पढ़ने वाले जो विद्यार्थी परीक्षा में प्रथम उत्तीर्ण होते थे वे सब आज software company में कर्मचारी हैं और मैं उनका मालिक हूँ ।

 

संस्कारमय श्रेष्ठ कर्म को यज्ञ कहा जाता है - *यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म: |* संस्कारी मनुष्य यज्ञ-योगमयी जीवनशैली अपनाता है। भोगमयी शैली से दूर रहता है। यजुर्वेद में कहा गया है - *आयुर्यज्ञेन कल्पताम् |* वह अपने संपूर्ण जीवन को यज्ञ यानी परोपकारमय बना लेता है।

संस्कार और संस्कृति एक ही अर्थ ज्ञापित करते हैं। कृ धातु और घञ् प्रत्यय से कार शब्द बनता है । अर्थ है - करने का भाव। कृ से क्तिन् प्रत्ययपूर्वक कृति शब्द बनता है , जिसका अर्थ है - करने का भाव। सम् उपसर्ग का अर्थ है - सम्यक्, उचित प्रकार से करना। सम् + कृति के बीच में सुप् का आगम शोभास्पद के अर्थ में हुआ है | सम्यक् और शोभास्पद रूप से करने का भाव है - संस्कार या संस्कृति।

यजुर्वेद के अनुसार मनुष्यमात्र की संस्कृति एक ही है - *सा प्रथमा संस्कृति: विश्ववारा: | मनुष्य जाति एक और उसकी संस्कृति भी एक विश्ववरणीय है । संस्कारशील व्यक्ति की जीवनदृष्टि ही बदल जाती है ।वह सर्वत्र आत्मदर्शन में प्रवृत्त हो जाता है - अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्।* 

*(याज्ञवल्क्यस्मृति१.८)* संस्कार विश्व शान्ति का द्वार खोल देते हैं।

 

प्रत्येक भारतीय शिक्षण संस्थान मानव समुदाय को चरित्र की शिक्षा देता था। तभी महर्षि मनु ने कहा है -

 

*एतत् देश प्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मन:।*

*स्वम् स्वम् चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।।*

चरित्र की शिक्षा देने के कारण ही *भारत विश्वगुरु* कहलाता था। अतः संस्कार के द्वारा मनुष्य का चरित्र-निर्माण आज की महती आवश्यकता है। दुर्भाग्य से इस ओर शिक्षा कोई सक्रिय कार्य नहीं कर रही है। आज के समाज की दारुण स्थिति को सुधारने का एकमात्र उपाय अच्छे मनुष्य का निर्माण है, जो संस्कारयुक्त शिक्षा से ही संभव है।

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