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Added on : 2025-07-28 14:41:31

   ० कुमार प्रशांत 

    दो धमाके करीब-करीब साथ ही हुए ! एक धमाके से महाराष्ट्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार के परखच्चे उड़ गए, दूसरे धमाके से उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नरेंद्र मोदी सरकार में पलीता-सा लगा दिया. पहला धमाका मुंबई हाइकोर्ट ने किया जिसने 7 नवंबर 2006 को, मुंबई की लोकल ट्रेनों में एक लगातार हुए 7 बम विस्फोटों के सारे अपराधियों को निर्दोष करार, रिहा कर दिया. जिंदगी के अनमोल 18 लंबे वर्ष सरकार की जेल में निरपराध बंद रह रहे ये सभी लोग मुसलमान हैं और उन्हें इसकी ही सजा मिली थी.
    मुंबई शहर में व लोकल गाड़ियों में हुआ बम विस्फोट कांड हाल के वर्षों की सबसे घिनौनी, क्रूर और सांप्रदायिकता से भरी आतंकी कार्रवाई थी. लोकल ट्रेनों में शाम 6.30 बजे एक-के-बाद एक 7 गाड़ियों में हुए इन विस्फोटों में 189 लोग मारे गए तथा 824 लोग बुरी तरह जख्मी हुए. मुंबई में शाम का यह वक्त होता है जब ट्रेनें आदमियों को ढो रही हैं कि आदमी ट्रेन को, बताना मुश्किल होता है. ऐसी भीड़ के वक्त इस तरह का हमला कोई दुश्मन कर सकता है या फिर कोई हैवान ! इसलिए यह बहुत जरूरी था, और है, कि इस अमानवीय कांड के पीछे के षड्यंत्रकारियों को खोजा जाए, पकड़ा जाए और कानून के हवाले किया जाए. यह किसी भी सरकार व प्रशासन की योग्यता व सार्थकता की कसौटी है. 
    महाराष्ट्र सरकार की आतंकरोधी टुकड़ी (एटीएस) ने यह मामला संभाला और हर तरफ़ धर-पकड़ शुरू हुई. एटीएस ने 17 लोगों को आरोपी बनाया जिनमें से 15 की वह गिरफ्तारी कर सकी. लंबी पुलिसिया कार्रवाई के बाद, महाराष्ट्र सरकार के मोकोका एक्ट के तहत विशेष अदालत में इन पर मुकदमा चला. अदालत ने 2015 में सुनवाई पूरी की और सजा सुनाई - एक आरोपी की रिहाई, 5 को फांसी तथा 7 को आजीवन कैद ! तब से जेल ही इन 15 लोगों का घर बना हुआ था. कोविड-19 में फांसी की सजा पाए एक अपराधी की मृत्यु भी हो गई. 
    मामला हाईकोर्ट पहुंचा. अब उसका फैसला एक धमाके की तरह आया है जिसकी चर्चा से मैंने यह लेख शुरू किया है. हम भी पूछते हैं और हाइकोर्ट ने भी पूछा है कि अपराधी की खोज का मतलब यह नहीं है कि आप सड़क से किसी को भी पकड़ कर, अपराधी घोषित कर दें और जेल में डाल दें. वे सालों जेलों में सड़ें और आप अपनी कुर्सी पर बैठ चैन की बांसुरी बजाएं. क्या जो सरकार और प्रशासन ऐसा करे, उसे सरकार या प्रशासन माना भी जा सकता है ? और यह भी देखिए कि आपकी शंका के दायरे में आए भी तो सिर्फ मुसलमान ! क्यों ? सिर्फ इसलिए कि आपके कुकर्मों से मुंबई में तब सांप्रदायिक दंगा फूटा था जिसके पर्दे में मुसलमानों को निशाने पर लेना आसान हो गया था ? 
    सामान्य समझ यह कहती है कि एक ऐसा वृहद योजनाबद्ध अपराध  ‘सफल’ होने से पहले कितने ही अपराधी गिरोहों के हाथों से गुजरता है जिनका धर्म के आधार पर विभाजन करना एक सांप्रदायिक अपराध है. पैसों की हेराफेरी हुई होगी, हवाला हुआ होगा, कितने हाथों व रास्तों से छुपता-छुपाता बारूद पहुंचा होगा ! और भी न जाने क्या-क्या हुआ होगा ! कौन कह सकता है कि यह सारा मुसलमानों के जरिये ही हुआ होगा ? मुसलमान भी होंगे तो दूसरे भी होंगे- अपराधलिप्त किसी भी धर्म का आदमी इसमें लिप्त होगा.  
    अपराधियों, तस्करों, गैंगेस्टरों का एक ही धर्म होता है - पैसा बनाना; फिर एटीएस ने केवल मुसलमानों क्यों दबोचा ? क्योंकि उसे पता था कि उस वक्त की सरकार की राजनीति को यह सबसे अधिक सुहाएगा. “ किसी अपराध के मुख्य व्यक्ति को सजा दिलवाना आपराधिक गतिविधियों को दबाने, कानून व्यवस्था को बनाए रखने तथा नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी करने की दिशा में निहायत जरूरी काम है. लेकिन ऐसा झूठा आभास पैदा करना कि हमने मामला हल कर लिया है तथा अपराधी अदालत में पहुंचा दिए गए हैं, एक खतरनाक दावेदारी है. ऐसे क्षद्मपूर्ण ढंग से मामले को निबटाने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास टूटता है और समाज को झूठा आश्वासन मिलता है जबकि असली अपराधी कहीं छुट्टे घूमते रहते हैं. हमारे सामने जो मामला आया है, वह ऐसा ही है.” जस्टिस अनिल किलोर तथा श्याम चांडक ने 671 पन्नों का फैसला इस तरह लिख कर सारे मुसलमान आरोपियों को रिहा कर दिया. 
    अब कठघरे में कौन है ? महाराष्ट्र की सरकार और महाराष्ट्र का एटीएस. महाराष्ट्र सरकार तुरंत सुप्रीम कोर्ट गई. वहां रोना यह रोया गया कि हम रिहा लोगों को फिर से जेल में डालने की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि यह निवेदन कर रहे हैं कि ऐसे फैसले का असर मकोका के दूसरे मामलों पर भी पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट इसकी सफाई में आदेश जारी करे. सुप्रीम कोर्ट ने कुल जमा यह निर्देश दिया कि मुंबई हाइकोर्ट के इस फैसले को मकोका के दूसरे मामलों में आधार नहीं बनाया जाए-“ बस, इससे अधिक कोई राहत हम आपको नहीं दे सकते.” मतलब मुंबई हाइकोर्ट का फैसला ज्यों-का-त्यों लागू है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोड़ दिया कि इस मामले में जो लोग रिहा हो चुके हैं, अब उन्हें आप वापस जेल में भी नहीं डाल सकते. 
    सरकारों के पास शर्म भले न हो, जनता का अफरात पैसा तो है ही. वह वकीलों-अदालतों पर कुछ भी लुटा सकती है. लेकिन इस अनमोल सवाल का जवाब न महाराष्ट्र सरकार दे सकती है, न सुप्रीम कोर्ट कि वह कौन-सी अदालत होगी जहां ऐसी सरकार को व ऐसे प्रशासन को सजा मिलेगी जो बेकसूरों की जिंदगी से ऐसी बेरहमी से खेलती है ? हमारे संविधान में बहुत सारे संशोधन हुए, ऐसा एक जरूरी संशोधन कौन-सी सरकार ला सकती है और कौन-सी अदालत ऐसा करने का निर्देश सरकार को दे सकती है कि अपराध को रोकने के नाम पर आप अपराध नहीं कर सकते ? ऐसा प्रमाणित होने पर सरकार व प्रशासन को भी सज़ा मिलेगी ! यह संसदीय लोकतंत्र को उन्नत करने वाला कदम होगा.  
    महाराष्ट्र हाइकोर्ट के धमाके की गूंज अभी ठीक से गूंजी भी नहीं थी कि दूसरा धमाका दिल्ली से हुआ. इसमें सनसनी ज्यादा थी, सो मुद्दों को किनारे करने वाला, सनसनी का भूखा मीडिया इसके पीछे भागा. एक सत्वहीन उप-राष्ट्रपति ने जितना संभव था, उतने नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे दिया. देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी उप-राष्ट्रपति ने कार्यकाल समाप्ति से पहले त्यागपत्र दिया हो. लेकिन जगदीप धनखड़ का अपना इतिहास भी तो देखिए ! क्या जगदीप धनखड़ कभी किसी गंभीर राजनीतिक विमर्श के पात्र रहे हैं ? वे खुद ही खुद को गंभीरता से लेते हों तो हों, बाकी उनका सारा राजनीतिक जीवन दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की दरिद्र कहानी भर है. कितने ही दल बदलते हुए वे भारतीय जनता पार्टी तक पहुंचे और प्रधानमंत्री को लगा कि यह आदमी मेरी मजबूत कठपुतली बन सकता है, सो उन्होंने धूल के ग़ुबार से निकाल कर, उन्हें अपने दरबार में उन्हें शामिल कर लिया. वे ममता बनर्जी को नाथने के लिए सीधे ही राज्यपाल बनाकर बंगाल भेजे गए. राज्यपालों को सर्कस का बंदर बनाने की कहानी यहीं से शुरू होती है. अब तो बंदरों की थोक आमद हो रही है. ऐसे सारे सुपात्रों से प्रधानमंत्री की अपेक्षा यही रहती है कि वे दिखाएं कि वे कितने स्तरों पर, कितनी तरह से अपनी ‘कुपात्रता’ साबित कर सकते हैं. 
    धनखड़ इनमें सबसे अव्वल रहे, इसलिए वे दिल्ली लाए गए. राज्यसभा में सरकार का बहुमत नहीं था, सो सरकार को ऐसे ही लठैत की जरूरत थी. वे राज्यपाल के रूप में जितना गिरे थे, उप-राष्ट्रपति व राज्य सभा के अध्यक्ष के रूप में उससे भी आगे गए. उन्होंने किसी भी मर्यादा का पालन नहीं किया : न संवैधानिक मर्यादा का, न राजनीतिक मर्यादा का, न दो राज्य प्रमुखों के व्यवहार की मर्यादा का, न मानवीय रिश्तों की मर्यादा का. प्रधानमंत्री की नजर में चढ़े-बने रहने की कवायद सभी राज्यपाल करते हैं- आरिफ़ मुहम्मद खान भी,  आर.एन.रवि भी, आचार्य देवव्रत भी, आनंद बोस आदि भी. न करें तो वहां टिकें कैसे ? हम यह भी देखते हैं कि राज्यपालों से मुख्यमंत्रियों की टकराहट तभी तक रहती है जब तक उस राज्य में गैर-भाजपा सरकार होती है. भाजपा की सरकार आई और सारी तकरार कपूर की तरह उड़ जाती है. दिल्ली इसका नायाब नमूना है. अब दिल्ली का उप-राज्यपाल कौन है, लोगों को पता भी नहीं चलता है. आम आदमी पार्टी के दौर में सिद्धांत ही बना था कि असली सत्ता उप-राज्यपाल के पास है जिसे खेलने के लिए एक सरकार दे दी गई है. 
    धनखड़ साहब ने राज्यसभा को प्राइमरी स्कूल की कक्षा में बदल कर ख़ुद को हेडमास्टर नियुक्त कर लिया. विपक्ष का कोई ही वरिष्ठ सदस्य ऐसा नहीं होगा जिसे उन्होंने अपमानित न किया हो. उनके हाव-भाव से-बॉडी लाइंग्वेज-से उन सबके लिए गहरी हिकारत झलकती थी जो सत्तापक्ष के नहीं थे. वे अपना अज्ञान व कुसंस्कार छिपाने के लिए भारतीय परंपरा, वैदिक शील, संवैधानिक गरिमा जैसे बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल करते तो थे लेकिन दिन-ब-दिन उनका खोखलापन जाहिर होता जाता था. हाल-फिलहाल में राज्यसभा के एक अध्यक्ष हुआ करते थे हामिद अंसारी ! उनके दौर में राज्यसभा की शालीनता व विमर्श की हम आज भी याद करते हैं. 
    धनखड़ साहब कभी वकील भी रहे थे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि इस नाते वे संविधान विशेषज्ञ भी हैं. यह कुछ ऐसा ही था कि वार्डब्याय समझने लगे कि वह डॉक्टर भी है. वे संविधान की मनमानी व्याख्या करने लगे, सुप्रीम कोर्ट को उसकी औकात बताने लगे. मोदी-राज में यह सबसे खतरनाक है. कठपुतलियां ही कठपुतली नचाने की कोशिश करने लगें, तो भला कोई कैसे सहे ! उन्हें लगता रहा कि इस तरह प्रधानमंत्री की नजर में बने रहने से अगली सीढ़ी चढ़ने को मिलेगी. बस, यहीं आ कर वे गच्चा खा गए. 
    प्रधानमंत्री को दूसरी सारी बकवासों से खास मतलब नहीं होता है. वे खुद ही इसमें निष्णात हैं. उन्हें हर वह आदमी नागवार गुजरता है जो अपनी हैसियत बनाने लगता है. पार्टी में सबकी हैसियत खत्म कर तो प्रधानमंत्री ने अपनी हैसियत बनाईं है. अब आप उसे ही चुनौती देने लगें, तो कैसे चले. सो धनखड़ साहब नप गए. वे इतनी हैसियत नहीं रखते हैं कि उनके जाने से कोई मक्खी भी भिनभिनाए. इसलिए सत्तापक्ष से कोई आवाज नहीं उठी. प्रधानमंत्री के ट्विट ने विदाई लेते धनखड़ साहब को न सिर्फ अपमानित किया बल्कि अपनी पार्टी को सावधान भी कर दिया कि अब कोई उनकी बात न करे. 
    जब साहब ने अपने लोगों को ऐसा इशारा कर दिया तब अपना तीर-कमान ले कर सामने आई कांग्रेस. उसने धनखड़ साहब के पक्ष में अबतक सबसे ज्यादा आवाज उठाई है. इन दिनों कांग्रेस की यही चारित्रिक विशेषता बन गई है कि वह बेनिशाने तीर चलाती है. वह धनखड़ साहब के लिए जो कह व कर रही है, वह सतही अवसरवादिता व अपरिपक्व राजनीतिक चालबाजी भर है. एक कमजोर, दिशाहीन राजनीतिक दल ही इस तरह अपना सिक्का जमाने की कोशिश करता है. 
    इस सरकार ने भारतीय लोकतंत्र को एक ऐसी खोखली व्यवस्था में बदल दिया है जिसमें व्यक्तित्वहीन कठपुतलियों का मेला लगा है. आज एक नहीं, कई धनखड़ हैं. एकाधिकारशाही के लिए ऐसा करना जरूरी होता है. एकाधिकारशाही में संविधान ऐसा मृत दस्तावेज बना दिया जाता है जिसे बाजवक्त प्रणाम तो किया जाता है लेकिन सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं को प्राणहीन जी-हुजूरों का अस्तबल बना दिया जाता है. हम आज उसी के रू-ब-रू हैं.

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