राजेश बादल
मैं थकने लगा था।थोड़ा थोड़ा टूटने भी लगा था।सोचा था मिस्टर मीडिया को अब स्थायी विराम दे दूँ।जो व्यवहार प्रिंट,टीवी और डिज़िटल पत्रकारिता इस देश के करोड़ों नागरिकों के साथ कर रही है,उसकी निराशा चरम पर थी।इसलिए कुछ महीनों से मिस्टर मीडिया का यह स्तंभ आप तक नहीं पहुँच रहा था।लेकिन ग़ैरहाज़िरी के इन दिनों में यह पता चला कि मिस्टर मीडिया की नियमित उपस्थिति का अर्थ क्या था ? लगातार बड़ी संख्या में फ़ोन और संदेश।इतने अधिक कि मैं मज़बूर हो गया।यक़ीन मानिए कि इसके बाद भी मैं हारा नहीं था अलबत्ता टूटा ज़रूर था।इस मुल्क़ की पत्रकारिता का एक बड़ा वर्ग सिद्धांत हार चुका है,सरोकार हार चुका है, समर्पण हार चुका है,सत्ता से हार चुका है और सब कुछ हार चुका है।अपना वह धरातल भी खो चुका है,जिस पर पत्रकारिता प्रतिपक्ष होती है।सत्ता की गोद में बैठकर जो पत्रकारिता हो रही है,दरअसल वह पत्रकारिता ही नहीं है।वह तो चारण या भाटगीरी का विकृत संस्करण है।ऐसे में मिस्टर मीडिया का पुनर्जन्म बेहद आवश्यक था।मैं नहीं कहता कि मिस्टर मीडिया इस तरह की कथित पत्रकारिता के कान उमेठ रहा था,तो उससे कोई क्रांति हो रही थी और पत्रकारिता की धारा उज्जवल तथा निर्मल हो रही थी।लेकिन मुझे यह अहसास हो गया था कि भले ही जुगनू की मानिंद हो,मगर झीनी झीनी रौशनी देने का काम यह स्तंभ तो कर ही रहा था।तीन-चार महीने में मिले हज़ारों सन्देश और पुराने स्तंभों पर आधारित किताब मिस्टर मीडिया की पिछले बरस लोकप्रियता इसका सुबूत है।इसलिए आपके स्नेह और भरोसे के लिए शुक्रिया अदा करता हूँ।
लौटता हूँ इस बार के विषय पर।आदत से मजबूर हूँ।इसलिए इस विषय ने मुझे विवश किया कि मिस्टर मीडिया भले ही भटकी पत्रकारिता को रास्ते पर नहीं लाए।पर,घंटी बजाकर आग़ाह करने का काम तो करता ही है।चंद रोज़ पहले लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाए।उन्होंने नक़ली मतदाताओं और मतदाता सूची में गंभीर गड़बडियों का मामला उठाया।जिन तथ्यों को उन्होंने अपने ख़ुलासे में शामिल किया,वे निश्चित रूप से चौंकाते हैं।वे सही हैं तो कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अल्पमत की सरकार को बहुमत दिलाया गया है और निर्वाचन आयोग इसका गुनहग़ार है।चूँकि आरोप लगाने वाले नेता प्रतिपक्ष की संवैधानिक पीठ पर बैठे हैं। इसलिए उनसे आयोग शपथ पत्र माँगे,यह उचित नहीं है।उसे सुबूतों के आधार पर अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए।जबसे मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अलग किया गया है,तो निर्वाचन आयोग की संवैधानिक स्थिति कमज़ोर हुई है।अब यह भारत सरकार के मातहत एक विभाग जैसा बरताव कर रहा है।कह सकता हूँ कि इसे स्वतंत्र संवैधानिक निकाय मानने में संकोच होता है।
इसके बाद मीडिया के तमाम अवतारों में बड़ा वर्ग ऐसा था,जिसने लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता का पक्ष निष्पक्षता से नहीं रखा।वह अकारण चुनाव आयोग की वकालत करता दिखाई दिया।यह संतुलित और निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता नहीं है।कोई भी लोकतंत्र पक्ष के साथ प्रतिपक्ष की सशक्त भूमिका से ही मज़बूत होता है।यह जम्हूरियत की गाड़ी के दो पहिए हैं।प्रतिपक्ष का पहिया साइकल के पहिए के आकार का हो और पक्ष का पहिया बस के पहिए के आकार का हो तो लोकतंत्र की गाड़ी चल ही नहीं सकती।पत्रकारिता को इन दोनों पक्षों पर नज़र रखना होता है।यह काम पत्रकारों के एक बड़े वर्ग ने नहीं किया।इसके लिए उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता मिस्टर मीडिया !