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Added on : 2024-04-09 11:59:50

भारत के महान संपादक राजेंद्र माथुर की आज पुण्यतिथि है। यहाँ प्रस्तुत है उनके पैंतीस साल पुराने एक दुर्लभ व्याख्यान का अंश ,जो उन्होंने पत्रकारों की गिरती साख और आचार संहिता के बारे में दिया था।  व्याख्यान का यह हिस्सा उन के बारे में नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित राजेश बादल की पुस्तक सदी का संपादक - राजेंद्र माथुर से लिया गया है। पत्रकारिता पर उनके विस्तृत विचार आप इस पुस्तक में पढ़ सकते हैं। पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है।  

राजेंद्र माथुर 


पत्रकारों को प्रायः यह ग़लतफहमी रहती है या सहीफ़हमी रहती होगी कि वे बहुत वे लड़ाकू हैं, जुझारू हैं, देश में न्याय का पक्ष ले रहे हैं, इमरजेंसी को उन्होंने समाप्त किया, बोफोर्स कांड को उन्होंने उजागर किया, सत्ता परिवर्तन में उनका योगदान रहा, आगे भी रहेगा। यदि देश किन्हीं दो बुनियादों पर टिका है तो वह राजनेताओं पर कम और न्यायपालिका तथा पत्रकारिता पर ज्यादा टिका है, क्योंकि जब कहीं आशा नहीं रहती तो निराश व्यक्ति या तो अदालत के दरवाज़े खटखटाता है। वह उम्मीद करता है कि उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। फिर वह अख़बार के दफ्‍़तर में जाता है, जहाँ सबको लगता है कि जहाँगीर के जमाने की घंटी लटकी है, जिसको बजाएँगे तो एकदम संपादक नामक जहाँगीर आएँगे और न्याय करके ही उसे वापस लौटाएँगे। वैसे यह बात चरितार्थ करने वाले कई पत्रकार हैं भी, लेकिन दूसरी तरफ मैं आपका ध्यान इस सत्य की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि पिछले वर्षों में पत्रकारिता की छवि में गिरावट भी आई है।आमतौर पर ऐसे लोग भी आपको मिल जाएँगे जो पत्रकारों को बहुत ज्यादा अच्छा, राजा हरिश्चंद्र जैसा नहीं समझते। उन्हें लगता है कि अख़बार का दफ्‍़तर भी पत्रकारी क़ौम के शैतान का कारख़ाना है, जहाँ न जाने किन टेलीफोनों से, न जाने कब किन बातचीतों से, न जाने किन रात की दावतों से पता नहीं क्या क्या फैसले हो जाते हैं और सुबह कुछ छप जाता है। चाहे ऐसा होता न हो, लेकिन वे सोचते हैं। पता नहीं मालिक कौन-सा दबाव डालते हैं, राजनेता कौन-सा दबाव डालते हैं, संपादक का कौन-सा हित स्वार्थ है, संवाददाता पता नहीं किससे मिला रहता है वह कहता तो अपने आपको सत्य का आईना है, लेकिन पता नहीं है या नहीं? कुल मिलाकर मैं बहुत छवियों की वकालत नहीं कर रहा हूँ। न तो मैं इस छवि की वकालत कर रहा हूँ कि सारे पत्रकार जिहादी जोश से भरे हुए सफेद घोड़े पर चढ़े हुए, कल्कि अवतार हैं। न मैं इस छवि की वकालत कर रहा हूँ कि सारे पत्रकार सौदेबाजी करने वाले, षड्यंत्र करने वाले, अपने स्वार्थ के लिए ख़बर तोड़ने-मरोड़ने वाले हैं। लेकिन मैं आपका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि यह भी छवि है और यह छवि बढ़ती जा रही है।  जैसे-जैसे पत्रकारिता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे पत्रकारों के बारे में ये धारणाएँ भी बढ़ती जा रही हैं कि वे ग़ैर-जिम्मेदार होते हैं। भारत ही नहीं, विदेशों में भी, जैसे इंग्लैंड-अमेरिका में इस बात का उबाल आया हुआ है कि पत्रकार प्राइवेसी का कोई सम्मान नहीं करते। चाहे जहाँ फोटोग्राफर कैमरा लेकर पहुँच जाए। मान लीजिए, इंग्लैंड में राजवंश का कोई राजकुमार हनीमून मनाने के लिए समुद्र के बीच में जहाज लेकर चला जाए तो पत्रकार हेलीकॉप्टर लेकर जहाज की तसवीर लेना चाहेगा कि तुम हमसे बचकर कैसे रहोगे! अर्थात् शादीशुदा राजकुमार बीवी के साथ किसी अकेले जगह में, निर्जन द्वीप में नहीं जा सकता। प्रिंस चार्ल्स की शादी डायना के साथ हो गई तो उनकी कितनी महिला मित्र हैं, कहाँ मिलते हैं, कितनी बार मिलते हैं, इसी का चार्ट बना रहे हैं। किससे होटल में मिले थे, किससे राजमहल में मिले थे, फोटो छाप रहे हैं। तो बड़ा भारी संकट प्राइवेसी का पश्चिमी देशों में आ गया है। यहाँ नहीं आया। यहाँ संकट दूसरे हैं। प्रामाणिकता के संकट हैं, जिसे हम अच्छी तरह से जानते हैं। पत्रकारिता के साथ ज़िम्मेदारी की समस्या आजकल बहुत ज्यादा आ गई है। खोजी पत्रकारिता के लाभ भी हम अच्छी तरह जानते हैं। समाज में जितनी बुराइयाँ हैं, अपराध हैं, उनको उभारना पत्रकार का कर्तव्य है, लेकिन कई बार खोजी पत्रकारिता जो है, छापामार युद्ध जैसी हो जाती है। अर्थात् कोई पत्रकार अपने को ऊँचे शिखर पर टिकाए रखने के लिए अपना एक शिकार चुनता है। शिकार जितना ऊँचाई वाला होगा, पत्रकार का अहं उतना ही अधिक सार्थक सिद्ध होगा। उसके बाद वह आदमी को धराशायी करता है और सिद्ध करता है कि वह कितना महान् पत्रकार है। इस प्रकार यह एक खेल बन जाता है।कई बार संपादक होने के नाते मैं दुविधा से भर जाता हूँ कि ऐसी हालत में क्या किया जाना चाहिए। आपने बहुत पहले एशियन पेंट का एक विज्ञापन देखा होगा। उसमें एक आठ-दस साल का लड़का, जिसका नाम उस समय गट्टू बताया गया था, ब्रश और पेंट लेकर किसी भी वस्तु को काला कर देता है, किसी की मूँछ बना देता है, किसी की शक्ल बना देता है। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि पत्रकार जो है, वह भी एक आठ-दस साल का बच्चा है और अपने हाथ में एक पेंट और ब्रश लेकर चल रहा है। पेंट और ब्रश लेकर वह ऐसे बगीचे में पहुँच जाता है जहाँ हजारों संगमरमर की मूर्तियाँ लगी हुई हैं। वह एक नटखट बच्चा है और संगमरमर की मूर्ति के पास जाकर किसी की मूंछ बना देता है। किसी मूर्ति पर कालिख पोत देता है। किसी महिला को पुरुष बना देता है। किसी पुरुष को महिला बना देता है। कहीं पैर में काला लगा दिया, कहीं हाथ में काला लगा दिया। संपादक और रिपोर्टर इस घटना को भूल जाते हैं, क्योंकि यह तो उनका पेशा है! दिमाग़ पर ज़ोर दिए बिना उन्होंने यह करम कर दिया।अब जितनी मूर्तियाँ है, सबके आसपास हफ्तों तक लोग जुटते हैं। रिश्तेदार जुटते हैं। क्या भाई कैसे हो गया? ये अख़बार में कैसे निकल गया? तुम्हारी मूँछ कैसे बन गई? क्या करें साहब मेरी मूँछ थी ही नहीं! मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, मेरी मूँछ नहीं थी। इसने बना दी है। आपने देखा था कि मैं जीवन भर कभी मूँछवाला नहीं रहा। ये पत्रकार मुझसे पूछ तो लेते कि तुम्हारी मूँछ थी या नहीं। अब खंडन छाप दें। तो लोग सबेरे आते हैं, शाम को जाते हैं और पत्रकारिता के बारे में विस्मय करते हैं कि कैसे छप गया। उसे लगता है कि बड़ा षड्यंत्र है। कभी उसे लगता है कि उसके राजनीतिक शत्रुओं ने करवाया होगा। कभी उसे लगता है कि उसके मालिक ने करवाया होगा।कभी कोई स्पष्टीकरण देता है, कभी दूसरा स्पष्टीकरण देता है। लेकिन उसे एक बात समझ में नहीं आती वे सब काम करवाने में उस रिपोर्टर ने, उस पेंटर ने, हो सकता है कि आधा सेकंड में ही ये सब फैसले किए हों। इसीलिए पश्चिमी देशों में इसके लिए बहुत सारे क़ानून बन गए हैं। पश्चिम जर्मनी में तो क़ानून है कि यदि आपने कोई ग़लत खबर छापी है तो आपको प्रत्युत्तर का अधिकार संबंधित पक्ष को देना पड़ेगा और वो प्रत्युत्तर भी उतने ही महत्त्व से छापना पड़ेगा, जितनी प्रमुखता से समाचार छापा था। अब आप कह सकते हैं कि साहब, हम उतनी ही प्रमुखता से क्यों छापें, तो निवेदन यह है कि जब आपने समाचार बनाना, प्रमुखता से आवश्यक समझा तो उसे मिटाना भी उतना ही आवश्यक समझना चाहिए। हो सकता है, इसमें आपके अखबार के कागज की बरबादी हो रही हो तो आपने ही पहली बरबादी की थी, इसलिए दूसरी बरबादी भी करिए। पहली बरबादी क्यों की?तो अब कई पत्रों में प्रत्युत्तर का अधिकार कानून के रूप में सुरक्षित कर दिया गया है। अब भी नैतिकता का तकाज़ा यह है कि आप पार्क में मूंछें बनाने से पहले हर आदमी से बातचीत करिए। मगर पत्रकारिता में एक प्रलोभन यह भी है कि आपको मौका मिला है, छाप दो। फिर छापने का मौका मिले या न मिले। पत्रकारिता में बहुत हड़बड़ी रहती है। ऐसा लगता है कि खबर जो है, ऊँटनी का दूध है। अगर घंटे भर भी ऊँटनी का दूध पड़ा रहे तो ख़राब हो जाएगा। इसीलिए अभी पी डालो। एकदम जैसा निकला है, वैसा ताज़ा गरम पी लो तो ये जो ऊँटनी के दूध की प्रक्रिया है, उसमें बड़े भारी ख़तरे हैं।एक तो आप लिखते हैं कि उस आदमी से अमुक-अमुक ने इतने लाख की रिश्वत खाई होगी। लेकिन ऐसा छापने से पहले उस आदमी से भी बात कर लेनी बहुत आवश्यक है जिस पर आप खुद छुपकर वार कर रहे हैं। भाई, ये तो पुराने समय में भी चलता था कि आदमी निहत्था है तो लड़ाई नहीं करेंगे। उसके हाथ में भी तलवार हो, तब लड़ाई करने में मजा आएगा। अब यह तो मैं नहीं कहता कि जिसके पास एक अख़बार हो, उसके बारे में ही आप लिखें, ताकि आप उसके ख़िलाफ छापें तो वह भी छाप सके। समाचारपत्र से लैस न हो, पर उसे प्रत्युत्तर से तो लैस होने दीजिए। आपने आरोप लगाया तो आपको प्रत्युत्तर का अधिकार तो देना ही चाहिए और उसका पत्र भी छापना चाहिए। आप किसी को कहें कि आपने हत्या की, ऐसा पचास लोगों ने देखा। यह तो छापना आवश्यक ही है, लेकिन हत्यारा कहता है कि मैंने हत्या नहीं की है। कोर्ट भी इस बात की इजाज़त देते हैं। कोई भी न्यायाधीश अपने सामने किसी की हत्या होते देख ले तो भी वे इसकी तुरंत सजा नहीं दे सकते। यह नहीं कह सकते कि मैंने देखा है, इसलिए इसे फाँसी लगा दो, क्योंकि हत्यारा कहेगा कि नहीं भाई, न्यायाधीश महोदय ने ग़लत देखा। वो दस-पाँच गवाह पेश करेगा और गवाहों की सुनवाई होगी। कोर्ट की प्रकिया इतनी लंबी-चौड़ी है तुरंत सजा दे ही नहीं सकते। यह नहीं कह सकते कि मैंने देखा है। तो बताइए अख़बार को बिलकुल तात्कालिक फैसला देने की क्या जरूरत है। आपने तो एक वार किया और चरित्र समाप्त।जीवन से ज्यादा चरित्र महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ज़िंदगी क्या है, आदमी मर जाना पसंद करेगा, लेकिन अपने यश का ख़त्म हो जाना कोई पसंद नहीं करेगा और कई बार तो यश का मर जाना, मर जाने से ज्‍़यादा महत्वपूर्ण है। किसी की यश-हत्या इतनी आसानी से कैसे कर सकते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या का मुकदमा चार साल चल सकता है, लेकिन आप जिसकी यश-हत्या करना चाहते हैं, उसका मुकदमा आप चार मिनट भी नहीं चलने देना चाहेंगे। और वह आपके पास गिड़गिड़ाते हुए आता है कि हो सकता है कि आपने ग़लती की हो, तो आप दुत्कारते हुए, गुर्राते हुए कहते हैं कि हमने जो छाप दिया सो छाप दिया। जो करना है, करो। मेरा कहना है कि इस किस्म की पत्रकारिता नहीं चल सकती। आपके पास अख़बार है। यही तो खासियत है और उसकी दुर्बलता है कि उसके पास अख़बार नहीं है। यदि अख़बार के लोग अपनी विश्वसनीयता बनाए रखना चाहते हों तो इस असमानता को अख़बार को ही दूर करना चाहिए। इसके लिए उपाय तो बहुत सारे हैं। कई सामाजिक रूप से उत्तरदायी लोग इसका उपाय कर भी रहे हैं।अख़बार में पहला न्यायाधीश तो विवेकवान संपादक ही होता है। संपादक इस मामले में दो तरह से न्यायाधीश होता है- पहला समाचार पत्रों का गेट कीपर अर्थात् खब़र उसकी सहमति के बिना छपनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मान लीजिए कि तंत्र बहुत बड़ा है और संपादक नहीं देख सका तो जूनियर गेट कीपर समाचार संपादक या सहायक समाचार संपादक या सह-संपादक का विवेक हावी होना ही चाहिए। अगर पहले दिन नहीं तो दूसरे दिन ताकि उसका इलाज किया जा सके। इस मामले में संपादक एक अपराध का कर्ता भी है और अपराध का निवारणकर्ता भी है। अपराधकर्ता इस मायने में है कि छप गया तो गुनाह तो उसी का है, लेकिन छप जाने के बाद गुनाह के बारे में क्या किया जाए और अगली बार उसे कैसे न होने दिया जाए- यह ज़िम्मेदारी संपादक की आ जाती है। अगर आप तसल्ली दिला सकें सामने वाले को कि हमने इतना बड़ा छाप दिया आपके जख्म पर मलहम लगाने को, तो वह मलहम को मान जाए तो संपादक इस मामले में इस तरह न्यायाधीश हो गया।एक संस्थागत उपाय तो संपादक स्वयं है। उसके बाद आप अगर यह मानें कि संपादक दो भूमिका कैसे निभा सकता है, वही अपराधी, वही न्यायाधीश - यह तो बहुत पेचीदा मामला है कि गुनाह भी आप करें और न्यायाधीश भी आप ही हों। अपराधी अपने बारे में तो रक्षा ही करेगा। मान लें, अगर आपके छोटे भाई ने अपराध कर दिया हो और थाने में बैठा हो तो उसे आप छुड़ाने जाएँगे या कहेंगे कि मैं न्यायाधीश हूँ और कहता हूँ कि इसे और सजा दे दीजिए। अगर आपके उप संपादक ने कोई गुनाह किया हो तो संपादक उसकी रक्षा करेगा या उसे अपराधी घोषित करेगा? इस द्वंद से निपटने के लिए भी उपाय किए गए हैं। इसके लिए अच्छे अख़बारों ने अपने यहाँ लोकपाल की नियुक्ति कर ली है। अर्थात् आप इसे कहते हैं पत्रकार लोकपाल। आपने एक पंच तय कर लिया है कि यह हमारा कार्यालयीन है। वह संपादक नहीं है। उसका काम केवल न्याय देना होगा। अगर आपको कोई शिकायत है तो आप उस कार्यालयीन पंच के सामने शिक़ायत कर सकते हैं। उसकी तनख्वाह वगैरह सब अख़बार वाले ही देंगे। सुविधाएँ मालिक देंगे, लेकिन उसका काम यह होगा कि वह शिकायत को सुने।अब आप कह सकते हैं कि भाई अख़बार वाले ही तनख्वाह क्यों देंगे? फिर तो वह उसकी तरफ ही झुकेगा। लेकिन ऐसा आवश्यक नहीं है, क्योंकि आख़िर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को तनख्वाह तो सरकार ही देती है, बंगले भी सरकार देती है, मोटर भी सरकार देती है, लेकिन कोई यह नहीं कहता कि इस कारण वह सरकार के पक्ष में ही निर्णय देंगे। तो समाज में यह मर्यादा कायम हो सकती है कि अखबार के दफ्तर तनख्वाह दें, लेकिन एक व्यक्ति ऐसा हो जो एडीटर से ऊपर हो। ऊपर अखबार में दखल देने वाला नहीं। ये छपेगा, ये नहीं छपेगा- ऐसा कहने वाला नहीं। लेकिन यह बताने वाला कि अमुक मामले में ग़लती हुई है और उसका इलाज यह होगा। पंच ने जो कहा है वह बात अखबार में छापी जाए। वह कोई जुर्माना नहीं करेगा, सजा नहीं घोषित करेगा, वह केवल अखबार के बारे में संपादक के बारे में टिप्पणी करेगा कि अमुक बात सही नहीं हुई। और शर्मदार आदमी के लिए इतना काफी है। चुल्लू-भर पानी पर्याप्त है। इसके लिए जरूरी नहीं है कि जेल में छह महीने की सजा हो या दस हज़ार रुपए का जुर्माना हो। यह आवश्यक है कि चार लाइनों में लिख दिया जाए कि फलां काम गलत हुआ।आपको मालूम होगा कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' अख़बार ने अपने लिए एक लोकपाल की नियुक्ति साल-सवा साल से कर रखी है और जस्टिस भगवती यह काम दिल्ली में कर रहे हैं तो कुछ अखबार इस तरह का प्रयोग कर रहे हैं लोकपाल की नियुक्ति का। मेरे खयाल से अच्छा प्रयोग है। देखना चाहिए कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में यह कितना सफल होता है, ताकि दूसरे अखबार भी इसे अपना सकें। अगर लोकपाल से भी संतुष्ट न हों तो उसके बाद भी उपाय है ही। आप प्रेस कौंसिल में शिकायत कर सकते हैं, जो ऐसे ही कामों के लिए बनी है। यह संस्था भारत सरकार ने इसलिए बनाई है कि यदि अख़वारवाले ने अपने यहाँ लोकपाल की व्यवस्था नहीं की है तो लोग प्रेस कौंसिल में अपनी शिकायत कर सकें और न्याय पा सकें। हालाँकि यहाँ भी न्याय कोई जुर्माने का नहीं है, सजा का नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि प्रेस कौंसिल के पास कोई काटने वाले दाँत तो हैं नहीं। लेकिन यहाँ सवाल यह है कि अगर उसने कह दिया कि आपने ग़लत काम किया तो यह भी शर्मंदार आदमी के लिए काफी होना चाहिए। तो ये तीन-चार उपाय हैं। लेकिन अगर आप इनसे भी संतुष्ट न हों तो अंततः अदालत में तो जा ही सकते हैं। जहाँ सजा भी मिलेगी, जुर्माना भी होगा और जो भी आप चाहें, होगा- बशर्ते कि वह किसी क़ानून के दायरे में आता हो। तो चार-पांच किस्म का है- संपादकीय इलाज, लोकपाल दूसरा इलाज है, प्रेस कौंसिल तीसरा इलाज है और चौथा इलाज है-जिम्मेदारों के बारे में।एक इलाज और दुनिया के देश करना चाह रहे हैं। इसके बारे में तेजी से चर्चा चल रही है। इलाज यह है कि एक आचरण संहिता बननी चाहिए पत्रकारिता की। 'कोड आफ कंडक्ट' जिसको कहते हैं। भारत में पंद्रह-बीस साल से कहा जा रहा है कि आचार संहिता बननी चाहिए। खासकर कांग्रेस राज के दिनों में ऐसा कहा गया और पत्रकारों ने उसका हमेशा विरोध किया। विरोध करने के कारण ऐतिहासिक हैं और मेरे हिसाब से बहुत सही भी है। ऐतिहासिक कारण यह है कि जब इमरजेंसी आई थी तो पत्रकारिता को दबाने के लिए, स्वत: अखबारों को नियंत्रित करने के लिए इस आचार संहिता की चर्चा शुरू की गई। अख़बारवालों ने यह कहा था कि एक बार ही आचार संहिता बनवा दीजिए। सरकार इसको क़ानून पास कर लागू कर देगी और एक प्रकार से सेंसरशिप हमेशा के लिए अख़बारों पर लग जाएगी।इसलिए भारत के गणमान्य पत्रकार हमेशा आचार संहिता का विरोध करते रहे हैं। यह विरोध परिस्थितिगत है। शाश्वत विरोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि आचार संहिता में क्या बुराई है। अगर आप डॉक्टरी पढ़ते हैं, डॉक्टर हैं तो उसके लिए एक कंडक्ट है। अगर आप बार कौंसिल के मेंबर हैं, वकील हैं, तो उसके लिए भी आचार संहिता है और बार कौंसिल आचार संहिता के उल्लंघन के बाद निकाल भी सकती है। वकालत की सनद छीन सकती है। अगर आपने कोई प्रोफेशनल दुराचरण किया है तो आपकी डॉक्टरी बंद कर सकती है। वकालत जो है, व्यवस्था है, व्यापार नहीं है। वकालत से आपको गेटआउट किया जा सकता है। अगर आप दुराचरण करेंगे तो कोर्ट से भी निकाला जा सकता है।क्या पत्रकारिता से निकालने का कोई तरीका है? पत्रकारिता में आपने कोई अनाचार किया और यह सही पाया गया, इसलिए आपको बहिष्कृत किया जाता है- ऐसा करने का कोई उपाय है? प्रवेश की अर्हताएँ हैं कुछ आपकी? एम.बी.बी.एस. करने पर डाक्टर बनते हैं, बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग करने के बाद इंजीनियर बनते हैं, एल.एल.बी. की तीन साल की पढ़ाई के बाद वकील बनते हैं। हर किस्म के पेशे के लिए अपनी अर्हताएँ है। पत्रकारिता यदि पेशा है, प्रोफेशन है तो इस प्रोफेशन में किसी के लिए कौन-सी योग्यता है? कोई योग्यता नहीं है।आपको साक्षर होना भी आवश्यक नहीं है। संपादक बनने के लिए यदि कोई निशान लगाने के अलावा कुछ भी नहीं जानता हो, हिंदी भी नहीं जानता हो, उर्दू जानता हो तो भी हिंदी अख़बार का संपादक बन सकता है। इसमें कोई पाबंदी नहीं है। उसे कुछ भी जानना आवश्यक नहीं है। अगर उसे कई मुकदमों में सजा मिल चुकी है तो भी वह अखबार निकाल सकता है। कोई पाबंदी नहीं है। जब मैं दस साल पहले प्रेस कमीशन संस्था का सदस्य था तो जहाँ-जहाँ मैं जाता था, एक सवाल हमेशा पूछा जाता था कि भाई ग़ैर जिम्मेदार पत्रकार, ब्लैकमेल करने वाले पत्रकार पैदा हो गए हैं। इसको किसी तरह से रोकिए। निवेदन यह है कि इसका कोई संवैधानिक तरीका तो है नहीं, क्योंकि यदि आपने इसे रोकने के लिए संविधान को अनुच्छेद-19/1, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है. उसको समाप्त कर देना होगा। अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता उन लोगों की होगी, जिनके पास कहने को कुछ है। जिनके पास कहने लायक कुछ नहीं है, उसके लिए अभिव्यक्ति की कोई सार्थकता नहीं होगी। कहने लायक है कि नहीं है, यह तो लोकतंत्र में जनता तय करती है। आपकी राय वजनदार है कि नहीं, आप बनार्ड शॉ हैं, राधाकृष्णन हैं, तो आप बोल सकते हैं, लेकिन आप अमुक-अमुक हैं मधुबनी में, दरभंगा में, तो आप नहीं बोलेंगे। ऐसा अनुच्छेद-19 में नहीं है। आर्टिकल-19 मतलब अभिव्यक्ति की आजादी है। मन की आजादी है। सभी को आजादी है। मजदूर की भी आजादी है, राजनेता की भी है। सबकी आजादी है। यदि सबकी है, तो आप किसी से अख़बार निकालने या अखबार में नौकरी करने का अधिकार कैसे छीन सकते हैं। इस अर्थ में पत्रकारिता प्रोफेशन रह नहीं जाती। सब पत्रकार हो सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता से ही उम्मीद प्रोफेशन की होती है, लेकिन उस प्रोफेशन में प्रवेश के लिए कोई शर्त नहीं है। तो इसमें भी क्वालिटी कंट्रोल करने जैसी चीज है, लेकिन कोई क्वालिटी कंट्रोल संविधान के अनुसार नहीं किया जा सकता। किसी संस्था के ढंग से नहीं किया जा सकता। सरकार नहीं कर सकती।सरकार करेगी तो बहुत ही अनर्थ हो जाएगा। कोई और संगठन बनाकर कर सकते हैं। इसमें सामाजिक मर्यादा और शील के अलावा कोई क्वालिटी कंट्रोल नहीं। आप किसी पत्रकार को बेइज्जत करते हैं और ख़राब मानते हैं। इसके लिए उस पत्रकार के ख़िलाफ कोई इलाज नहीं है। फिर भी यदि आप उसे ख़राब कहते हैं तो भी वह कलक्टर के यहाँ जाकर जो चार काम कराता है, वह करवाएगा, क्योंकि उसके पास अख़बार है। इसका क्या कर सकते हैं? आप उसे ख़राब कहते रहिए। आप उसे निकम्मा कहिए। आप उसे पूरे ज़िले में बदनाम कर दीजिए। वह ब्लैकमेलर है, लेकिन अगर किसी मंत्री को, किसी कलेक्टर को, किसी डिप्टी कलेक्टर को उसे कोटा देना है, लाइसेंस देना है तो वह लेकर रहेगा। आप उसका कुछ नहीं कर सकते। तो ये पत्रकारिता के सवाल हैं और हर स्तर पर हैं। मैं नहीं कह सकता कि यह स्थिति छोटे अखबार में ज्यादा है और बड़े या मंझले अखबार में कम है। हर स्तर पर हर किस्म का घालमेल चलता रहता है। इसलिए ज़िम्मेदारी के सवाल जो हैं, बहुत गौण हो गए हैं। आचार संहिता के मुद्दे पर भारत के पत्रकार इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की स्मृति के कारण जरूरत से ज्यादा एलर्जिक हैं। मेरी राय है कि कोई न कोई 'कोड आफ कंडक्ट' पत्रकारों को स्वीकार कर लेना चाहिए।इंग्लैंड में अभी दो महीने पहले नवंबर महीने में कम से कम दस-पंद्रह बड़े संपादकों ने अपने अखबार के मुखपृष्ठ पर एक आचार संहिता छापी है और कहा है कि इसका पालन करेंगे। उन्होंने यह इसलिए छापी है कि मार्गरेट थैचर सरकार ने बार-बार कहा है कि पत्रकार बहुत गै़र-ज़िम्मेदार होते जा रहे हैं। यदि उन्होंने कोई आचारसंहिता नहीं मानी और उसको स्वयं लागू करने की कोई मशीनरी ईजाद नहीं की, तो सरकार को कड़ा क़ानून बनाना पड़ेगा। भारत में कड़ा कानून बनाते हैं, तो पत्रकारों पर बड़ा हमला होता है, प्रेस की स्वाधीनता पर हमला! लेकिन जो 'मदर ऑफ पार्लियामेंट' है, वहाँ 900 साल के गणतंत्र के बाद अब यह कहा जा रहा है कि सख्‍़त क़ानून बनाना पड़ेगा। जब ब्रिटेन की पत्रकारिता इस स्थिति में पहुँच गई है तो, वहाँ से पहले ही मेरे खयाल में हमें अपने आचरण के बारे में पुनर्विचार कर लेना चाहिए। किसी के ख़िलाफ जिहाद चलाने के पूर्व, कोई भी राजनीतिक निर्णय लेने के पूर्व, किसी पर हमला करने के पूर्व, बहुत ही गंभीरता से तौलना चाहिए कि क्या हो रहा है। न्यायालय की अवमानना या संसद के विशेषाधिकार जो कभी मॉडिफाइड ही नहीं होते, वे होने चाहिए। इन सब क़ानूनों में निश्चित ही परिवर्तन करना चाहिए, ताकि प्रेस की आज़ादी बढ़े।मैं कहना चाहता हूँ कि आज का पाठक 20 साल पहले के पाठक की तुलना में बहुत जागरूक हो गया है। यदि आप आज 1990 में उस पर प्रहार करेंगे तो वह उस तरह नहीं झेलेगा, जैसे उसके पिताजी 1970 या 1960 में झेल लेते थे। कतई नहीं। मतलब जैसे अखबार के बारे में संपादक संवेदनशील हो गए हैं तो लोग भी लड़ाकू हो गए हैं। हम पत्रकार खोजी हो गए हैं, हम बहुत जुझारू हो गए हैं, सफेद घोड़े पर चढ़े रहते हैं, उसी प्रकार हमारे पाठक भी बहुत संवेदनशील हो गए हैं, अतः यदि आप उनकी मूँछ बनाएँगे तो पहले की तरह उसे वह चुपचाप नहीं झेलेंगे। वह कहीं कंज्यूमर प्रोटेक्शन कौंसिल में जाएँगे, प्रेस कौंसिल में जाएँगे, कहीं मोर्चा निकालेंगे, कहीं जुलूस निकालेंगे, कोर्ट में जाएँगे। लोकतंत्र में जनता को संवेदनशील होना चाहिए, लड़ाकू नहीं होना चाहिए। जुझारू होना चाहिए। ऐसा होना भी लोकतंत्र का लक्षण है। अर्थात् ग़ैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता के लिए जनता का आंदोलन और संगठित होना भी स्वस्थ पत्रकारिता का लक्षण है। पत्रकारिता को सही राह पर लाने की वह चेष्टा है। अख़बारवाले प्रहार करने को आजाद हों- बुराई पर, भ्रष्टाचार पर, राजनीति पर, बोफोर्स पर, दूसरी तरफ, ऐसा भी हो कि अगर आपने किसी मिठाईवाले का गलत उल्लेख कर दिया तो उसमें भी इतनी तत्परता होनी चाहिए कि वह आप पर प्रहार कर सके।
(राजेंद्र माथुर के एक व्याख्यान का अंश)

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