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हॉट टोपिक
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Added on : 2023-12-29 07:48:48

राजेश बादल 

आगामी लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं। सत्तारूढ़ बीजेपी ने केंद्र और राज्यों में अपने संगठन को मोर्चे पर लगा दिया है। साल भर चुनावी मूड में रहने वाली यह बड़ी राष्ट्रीय पार्टी तीन प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में मिली जीत से उत्साहित है और सरकारों में अधिकतर नए चेहरों को मिले अवसर के कारण उत्साह से लबरेज़ है। संसार में शायद यह अकेली पार्टी है ,जो आम दिनों में भी चुनावी तैयारियाँ करती रहती है। दूसरी ओर प्रमुख प्रतिपक्षी दलों ने भी सक्रियता बढ़ा दी है। उसके इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों के लिए एकमात्र समस्या है कि अगर वे वाकई भारतीय जनता पार्टी का मुक़ाबला करते हैं तो सरकार से असहमत वोटों का बिखरना कैसे रोका जाए ? लगभग पैंतालीस साल पहले कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों ने एकजुट होकर उसे पराजित करने का सपना देखा था और उसमें उन्हें क़ामयाबी भी मिली थी। यह अलग बात है कि वह गठबंधन या मोर्चा बहुत टिकाऊ साबित नहीं हुआ। शायद इसके पीछे उस विपक्षी गठबंधन से वैचारिक धुरी का अनुपस्थित होना था। उस काल का प्रतिपक्ष कांग्रेस के नहीं ,बल्कि इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ था।लेकिन जनता पार्टी अपनी वजहों से ही बिखर गई।  कांग्रेस अंदरूनी विभाजन के बावजूद तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी के नेतृत्व फिर दस साल के लिए सत्ता में आ गई थी। 
लेकिन इस बार स्थितियाँ बदली हुई हैं।क़रीब दो दर्ज़न सियासी पार्टियों के गठबंधन इण्डिया में हालिया पाँच विधानसभा चुनावों के परिणामों से बेचैनी है।यह गठबंधन 1977 की याद दिला रहा है। उस समय भी जनता पार्टी में शामिल तमाम घटकों के भीतर ऐसे नेता थे ,जो प्रधानमंत्री पद के लायक थे। जैसे चंद्रशेखर ,अटल बिहारी वाजपेयी ,लालकृष्ण आडवाणी ,मोरारजी देसाई ,जगजीवन राम,हेमवती नंदन बहुगुणा ,मधु दंडवते ,जॉर्ज फर्नांडिस और चौधरी चरण सिंह। लेकिन उस सत्ता परिवर्तन के सूत्रधार शिखर पुरुष लोकनायक जयप्रकाश नारायण थे। उन्होंने कई ताज़े और योग्य चेहरों को न चुनते हुए मोरारजी देसाई का चुनाव किया। मोरारजी अपनी संगठन कांग्रेस के साथ जनता पार्टी में आए थे , जो घटक दलों में बहुत बड़ी पार्टी नहीं थी। पर, इस बार हालात बदले हुए हैं। प्रतिपक्ष के पास लोक नायक जय प्रकाश नारायण जैसा कोई सर्वमान्य नेता नहीं है ,जिसकी बात आँख मूंदकर इण्डिया के सारे घटक दल स्वीकार कर लें।अलबत्ता प्रधानमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार,शरद पवार ,मल्लिकार्जुन खड़गे और ममता बनर्जी से लेकर अरविन्द केजरीवाल तक के नाम सियासी हलकों में गूँज रहे हैं।मोरारजी देसाई के नाम पर उस दौर में किसी भी दावेदार ने खुला विरोध नहीं किया था। मगर,इस बार के चुनाव में ऐसा ही होगा ,नहीं कहा जा सकता। यह अलग बात है कि उस समय प्रधानमंत्री पद के लिए सारे दावेदार योग्यता और अनुभव के मद्देनज़र राष्ट्रीय क़द के थे। इस बार ऐसा नहीं है। सभी दावेदार अपने को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं।
वैसे तो संवैधानिक लोकतंत्र का तक़ाज़ा यही कहता है कि चुनाव के बाद जिस दावेदार या दल को सबसे अधिक सांसदों का समर्थन हो , उसे ही इस शिखर पद के लिए चुना जाना चाहिए। इस नाते सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ही दिखाई देती है। क़रीब चौदह - पंद्रह करोड़ मतों के ढेर पर बैठी कांग्रेस देश में भारतीय जनता पार्टी के बाद दूसरे स्थान पर है। गठबंधन में शामिल अन्य दल उससे पीछे रहेंगे।फिर भी नेता पद का अंतिम चयन तो सांसदों की राय से नहीं ,बल्कि पार्टियों के आलाकमान के फरमान से ही होगा। पक्ष में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे पर कोई शंका नहीं है।नरेंद्र मोदी का नाम ही इकलौता नाम है। लेकिन ,विपक्ष के लिए चुनाव से पहले सर्वसम्मत चेहरे को खोजना यक़ीनन टेढ़ी खीर है।इस चेहरे की खोज लोक तान्त्रिक ढंग से की जानी चाहिए ,किन्तु यह तो तब हो ,जब इण्डिया में शामिल सभी दलों के अंदर लोकतंत्र हो। एक व्यक्ति के आदेश पर चलने वाले दलों की भारत के मौजूदा प्रजातंत्र को आवश्यकता नहीं है।
इण्डिया के गठन की भावना भले ही मज़बूत प्रतिपक्ष देने या फिर अपनी सरकार बनाने की रही हो ,पर उसके लिए अपने अंतर विरोधों से उबरना अत्यंत आवश्यक है ।कांग्रेस जिन प्रादेशिक पार्टियों को साथ लेकर चल रही है ,उनके अपने अपने राज्यों में राजनीतिक हित अलग अलग हैं।वे हित कांग्रेस के हितों से टकराते हैं। मसलन आम आदमी पार्टी इण्डिया में तो शामिल है ,लेकिन पंजाब और दिल्ली में लोकसभा चुनाव के दरम्यान क्या वह कांग्रेस को कम से कम आधी सीटें देने का वादा कर सकती है ? शायद नहीं। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस भी इण्डिया में है और वाम दल भी हैं। क्या ममता बनर्जी कांग्रेस को उसकी चाही गई सीटें दे सकती है। जिस सीपीएम को बंगाल से ममता बनर्जी ने खदेड़ने के लिए इतने वर्ष खपाए ,क्या वह कांग्रेस के सहयोगी बने वाम दलों को समर्थन दे सकेंगीं ? कमोबेश ऐसा ही उदाहरण समाजवादी पार्टी का है। कांग्रेस उत्तरप्रदेश में अपनी वापसी के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही है और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव इस महाप्रदेश में कांग्रेस की चाही गई सीटों पर उसे चुनाव लड़ने देंगे।इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अपने आंतरिक टूट फूट के बाद कांग्रेस से पहले जितनी सीटें समझौते में माँग सकेंगी ? और क्या कांग्रेस उनके विभाजन के बाद पहले जितनी सीटों पर समझौता करेगी ?बिहार में भी कुछ ऐसा ही हाल है । शायद नहीं। ये कुछ ऐसे सवाल हैं ,जिनका समाधान आसान नहीं है। जब तक इनका हल नहीं निकलेगा ,तब तक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना भी बेमानी ही है। वैसे तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना ही सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए था।यह नहीं हो सका।प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरे पर तो बाद में भी फ़ैसला हो सकता है।
 

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