• डॉ. सुधीर सक्सेना
अगस्त महज एक मास नहीं है। यह शहीदों के रक्त से सिंचित एक माह है। आजादी के लड़ाकों के संघर्ष और बलिदान ने इसे ऐतिहासिक महत्ता और गरिमा दी। स्वतंत्रता के उद्भव आवेग ने आठ अगस्त, 42 को उन ऊँचाइयों को छुवा था कि यह तारीख समय की पंजी में सुनहरे हरूफ़ में दर्ज हो गयी। आठ अगस्त को बंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी ने हुंकारी भरी ‘अंग्रेजों भारत छोडो।’ गूंज दूर दिल्ली नहीं, सात समुंदर पार बिलायत तक पहुंची। हुकूमत थर्रा उठी। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। ब्रिटेन समेत मित्र राष्ट्र डिफेंस पर थे। उत्तर पूर्व सीमांत अंचल तक जापानी फौजें चढ़ आई थीं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस आजाद हिन्द फौज के गठन के फेर में थे। महात्मा गांधी की इन सारी परिस्थितियों-घरेलू और वैश्विक मोर्चे पर पैनी निगाह थी। मार्च में आया क्रिप्स कमीशन विफल रहा था। किसी तरह ठोस आश्वासन दिये बिना वह बैरंग लंदन लौट गया था। असंतोष और अनिश्चिता चरम पर थी। बापू ने सारे देश में आजादी की लौ जगा दी थी। पूरा भारत रण क्षेत्र था और हर हिन्दुस्तानी योद्धा। ऐेसे में बापू ने ‘करो या मरो’ का आवाहन कर गरम लोहे पर घन प्रहार किया।
बापू अदभुत लोक-संचारक थे। उनके ‘करो या मरो’ और ‘अंग्रेजों भारत छोड़़ो’ की ललकार ने सारे देश में बिजलियां भर दी। अबुल कलाम आजाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल समेत सभी प्रमुख कांग्रेस-नेताओं को बंदी बना लिया। मगर आंदोलन ने जड़ें पकड़ लीं। उसे अगस्त क्रांति आंदोलन या भारत छोड़ो आंदोलन के तौर पर जाना गया। कांग्रेस की मांगे क्या थी? ब्रिटिश राज का तुरंत अंत हो। प्रोवीजनल सरकार का गठन हो और भारत साम्राज्यवाद और फासीवाद से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करे। गौर करें कि बापू की नजरों में खतरा साम्राज्यवाद से था और फासीवाद से भी। वह इंपीरियलिज्म और फासिज्म को यकसां खतरनाक मानते थे। यह उनकी दूर दृष्टि थी। बहरहाल, उन्होंने अवाम से सविनय अवज्ञा की अपील की। शासकीय सेवकों से त्याग-पत्र नहीं देने पर कांग्रेस के प्रति प्रतिबद्धता बरतने, किसानों से सिर्फ ब्रिटिश विरोधी जमींदारों को मनमाफिक लगान देने, छात्रों से पढ़ाई छोड़ने, युवराजों से जनता का समर्थन करनें और सार्वभौम मानने और प्रजा से सिर्फ ब्रिटिश विरोधी शासकों को समर्थन देने की अपीलें कीं।
भारत छोड़ों आंदोलन का देशव्यापी असर बाद में देखने को मिला, लेकिन उससे पेशतर एक बड़ी और क्रांतिकारी घटना घट गयी। अधिवेशन स्थल समेत चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। लेकिन वीरता ने प्रतिबद्धता के बीच अपनी चमक दिखा दी। नौ अगस्त को एक निर्भीक युवती तीर की तरह प्रकट हुई और पाबंदियों और पुलिस को चकमा देते हुये उसने बंबई में अधिवेशन स्थल-गवालिया टैंक मैदान पर तिरंगा झंडा फहरा दिया। यह युवती थी अरूणा आसफ अली। अरूणा आसफ अली समता, स्वतंत्रता, समाजवाद और सेक्यूलर मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नेत्री थी। उनका जीवनमूल्य परक था। सन 1930 और 1932 में वह जेल हो आई थीं। सन 1942 में उनकी आयु थी तैंतीस वर्ष। मजा देखिये कि गवालिया मैदान पर ध्वज फहराकर भी वह पुलिस के हाथ नहीं आईं और भूमिगत हो गयीं। भूमिगत रहकर भी उन्होंने आंदोलन जारी रखा। पत्रों, पोस्टरों और पर्चों के वितरण के अलावा उनका बड़ा काम था आजादी की अलख जगाने के लिए रेडियो प्रसारण। उन्होंने इन कामों को इतनी खूबी से अंजाम दिया कि पुलिस नाकामी में हाथ मलती रही। सरकार ने उनके सिर पर ईनाम रखा, लेकिन व्यर्थ। बेखौफ अरूणा बरसों बाद सन 1946 में जनता के सम्मुख आईं। बाद में सन 1958 में वह दिल्ली की पहली महापौर चुनी गयीं। भारत छोड़ों आंदोलन ने उन्हें अदभुत दृढ़ता प्रदान की। वह अफ्रो-एशियाई एकजुटता की प्रबल पैरोकार बनकर उभरीं। गोवा, दमण और दीव की मुक्ति के लिए उन्होंने राष्ट्रीय समिति का गठन किया। उन्होंने डेली पैट्रियट और साप्ताहिक लिंक का प्रकाशन प्रारंभ किया। दरअसल, भारत छोड़ो आंदोलन की आंच में तपकर अरूणा ही नहीं, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया सरीखे नेताओं की नेतृत्व प्रतिभा भी निखरी। अरूणा, जेपी और लोहिया की ‘त्रयी’ को भारत छोड़ो आंदोलन ने कुंदन सा दमका दिया। इस आंदोलन से उषा मेहता और सुचेता कृपालानी जैसी नेत्रियों की नेतृत्व प्रतिभा निखरी।
भारत छोड़ो आंदोलन छोटी मोटी घटना नहीं, क्रांतिकारी दौर था, जिसने समूचे भारत की रगो में क्रांतिकारी चेतना का संचार किया। बहशी सरकार के दमन का अंदाजा इससे लगायें कि सारे भारत में एक लाख से अधिक लोग बंदी बने। करीब दस हजार लोग पुलिस के बल प्रयोग में मारे गये। जनता ने बलिया, तामलुक, सतारा जैसी जगहों पर समांतर सरकार का गठन किया। कांग्रेस पर पाबंदी लगी। जनता स्वयं स्फूर्त सड़कों पर निकल आई। हुकूमत की मंशा के विपरीत कहीं कोई सांप्रदायिक फसाद नहीं हुआ। सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग और हिन्दु महासभा ने आंदोलन से दूरी बरती और राजगोपालचारी जैसे नेता ने कांग्रेस छोड़ दी। गांधी जी स्वास्थ्य के आधार पर सन 44 में जेल से छूटे। इस बीच भारत छोड़ो आंदोलन ने आजादी की आधारशिला रख दी थी।
भारत छोड़ो की हुंकार से अंग्रेजों के पांवो तले से जमीन सरक चुकी थी। भारत स्वतंत्रता की देहरी पर था। बात दिलचस्प है, मगर सच है कि भारत छोड़ो का नारा गांधी के दिमाग की उपज नहीं था। यह यूसुफ मेहर अली नामक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और ट्रेड यूनियन लीडर के दिमागी टकसाल की देन था। ‘साइमन गो बैक’ का नारा भी उन्होंने ही दिया था। वह बड़े ओजस्वी और प्रखर नेता थे। इसी का नतीजा था कि उन्हें उसी साल बंबई का मेयर चुना गया। महात्मा की खूबी कि उन्होंने एक श्रमिक नेता के गढ़े नारे को सारे देश का सामूहिक उदघोष बना दिया।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी और दमन के बावजूद इस क्रांतिकारी आंदोलन ने जल्दी दम नहीं तोड़ा था। यह आंदोलन सालों-साल चला। महात्मा गांधी सन 44 में स्वास्थ्य संबंधी कारणों से रिहा किये गये। आंदोलन सन 45 तक किसी न किसी रूप में चलता रहा, जब तक सारे सेनानी रिहा नहीं हो गये।