राजेश बादल
यक़ीनन यह विश्वयुद्ध नहीं है। लेकिन,विश्वयुद्ध से कहीं अधिक भयावह है ।यह आर्थिक जंग है। कारोबारी नज़रिए से देशों को तोड़ने का दौर। एक बार किसी मुल्क़ की वित्तीय रीढ़ टूट जाए तो फिर वह जंग लड़ने की स्थिति में भी नहीं रहता।पाकिस्तान इसका ताज़ा उदाहरण है।उसकी जर्जर अर्थव्यवस्था आने वाले कई साल तक अपने पैरों पर खड़े होने नहीं देगी।जंग लड़ने की तो बात ही अलग है।लेकिन अपनी बदहाली के लिए पाकिस्तान ख़ुद ही ज़िम्मेदार है।उससे निपटने के लिए जिस राष्ट्रीय चरित्र की ज़रुरत होती है,वह उसके पास नहीं है।लेकिन मेरा इशारा इन दिनों पश्चिमी और गोरे देशों की बदलती मानसिकता की ओर है।अब उनके हाथों में घातक हथियार नहीं,बल्कि ऐसी तुरुप के पत्ते हैं,जिसकी चाल चलते ही भले चंगे राष्ट्रों के बरबाद होने का खतरा मंडराने लगेगा।तुरुप के इस पत्ते का नाम टैरिफ वार है।अमेरिका की शह पर उसके पुछलग्गू नाटो देश इस जंग में कूद पड़े हैं।
बुधवार को नाटो राष्ट्रों के मुखिया मार्क रुट ने हिन्दुस्तान को खुले तौर पर धमकाया है। उन्होंने कहा है कि यदि भारत ने अब रूस के साथ व्यापार जारी रखा,तो नाटो भारत पर सौ फ़ीसदी कारोबारी प्रतिबन्ध लगा देगा।उन्होंने इस धमकी का विस्तार चीन और ब्राज़ील के ऊपर भी बढ़ाया है और इसके केंद्र में रूस है।अब अमेरिका चाहता है कि यूक्रेन के साथ जंग रोकने के लिए रूस की चारों तरफ से घेराबंदी की जाए।इसलिए वह नाटो मुल्क़ों पर दबाव बढ़ा रहा है।ज़रा मार्करुट की भाषा देखिए। वे कहते हैं ," यदि आप चीन के राष्ट्रपति,भारत के प्रधानमंत्री या ब्राज़ील के राष्ट्रपति हैं और रूस के साथ व्यापार तथा तेल-गैस खरीदना जारी रखते हैं और मॉस्को में बैठा व्यक्ति शांति वार्ता के प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लेता तो फिर मैं 100 प्रतिशत बंदिशें लगा दूंगा।ध्यान दीजिए कि इससे आप तीनों देशों पर गहरा प्रतिकूल असर पड़ेगा।इसके लिए नाटो ज़म्मेदार नहीं होगा "।बेचारे मार्क रुट भूल जाते हैं कि जिन देशों पर वे सौ फ़ीसदी बंदिशें थोपने की बात करते हैं,उनसे ही नाटो के सदस्य अभी भी तेल खरीद रहे हैं। याने भारत रूस से तेल खरीदता है और यहाँ से वह तेल परिशोधन के बाद यूरोप के गोरे राष्ट्रों के पास जाता है।कहीं अमेरिका से डरकर वे अपना नुक़सान तो नहीं कर रहे हैं या फिर अमेरिका चाहता हो कि यूरोपीय देशों की तेल पर निर्भरता पूरी तरह समाप्त हो जाए और वे अमेरिका से मँहगे दामों पर तेल आयात करने लगें।
मार्क रुट यहीं नहीं रुकते।वे तीनों देशों से कहते हैं कि आप पुतिन को फ़ोन करिए और उन्हें शांति वार्ता में शामिल होने के लिए तैयार कीजिए।ज़ाहिर है कि नाटो देश अमेरिका के दबाव में हैं।यह मात्र संयोग नहीं है कि एक दिन पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने भी यही बात कही थी कि रूस और उसके व्यापारिक साझीदारों पर 100 फ़ीसदी सेकेंडरी टैरिफ लगाए जा रहे हैं।याने जिस तरह ईरान पर सीधे हमला करके अमेरिका ने इज़रायल के साथ युद्ध विराम के लिए मजबूर किया था।ठीक वैसे ही अब ट्रम्प टैरिफ जंग छेड़कर रूस और यूक्रेन के बीच जंगबंदी कराना चाहते हैं। चूँकि उनके तरकश में उनकी कूटनीति के दो बड़े तीर आक्रमण की धमकी और कारोबारी चोट के हैं।अब चीन,ब्राज़ील और भारत पर वे फौजी आक्रमण तो कर नहीं सकते।इसलिए व्यापारिक क्षति पहुँचाकर ब्लैकमेल करना चाहते हैं।एक दिन पहले ट्रम्प यूक्रेन के राष्ट्रपति से कहते हैं कि क्या वे रूस पर हमला कर सकते हैं ? जेलेंस्की कहते हैं कि आप हथियार दीजिए।हम तैयार हैं।फिर ट्रम्प घोषणा करते हैं कि आक्रमण के लिए के लिए यूक्रेन को गंभीर और बड़े हथियार दिए जाएँगे।इनका ख़र्च नाटो देश उठाएँगे।जब रूस उनकी चेतावनी को खारिज़ कर देता है और नाटकीय अल्टीमेटम क़रार देता है तो अगले दिन वे कहते हैं कि रूस पर आक्रमण आवश्यक नहीं है।वे यूक्रेन से कहते हैं कि हम हथियार दें तो भी रूस पर हमले की मत सोचना।इसे क्या कहा जाए ? विश्व इतिहास में ऐसा कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं रहा है,जो गिरगिटिया धमकियों और बाज़ार से तमाम देशों को ब्लैकमेल करता हो।ऐसे में अगर रूस यूक्रेन के नाटो में शामिल होने को अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा मानता है तो क्या अनुचित है ? यूक्रेन का रवैया भी पाकिस्तान जैसा ही है।वह चीन की गोद में बैठकर भारत पर गुर्राता रहता है।
आपको याद होगा कि नाटो देशों की शिखर बैठक से पहले डोनाल्ड ट्रंप ने फरमान जारी किया था कि नाटो राष्ट्र अपनी जीडीपी का पाँच प्रतिशत रक्षा पर ख़र्च करें।नाटो देशों को उनका रवैया बेतुका लगा था।फिर भी उन्हें ट्रम्प का हुकुम मानना पड़ा।ट्रम्प ने कहा था कि धन तो अमेरिका का है पर,नाटो देश मजे कर रहे हैं ।उन्होंने तो यहाँ तक कह डाला था कि जो राष्ट्र रक्षा पर ख़र्च नहीं बढाएंगे तो वे रूस से उनका बचाव नहीं करेंगे,उल्टे रूस को उन पर आक्रमण के लिए प्रेरित करेंगे।ऐसे अटपटे मिजाज़ वाले व्यक्ति का कोई संगठन कर भी क्या सकता है ? पिछले कार्यकाल में उन्होंने धमकी दी थी कि नाटो के देश उनकी बात नहीं मानेंगे तो वे नाटो से अलग होने में कोई संकोच नहीं करेंगे फ़्रांस,हंगरी,तुर्किए,स्पेन और कनाडा जैसे कुछ अन्य देश अमेरिका के इस रवैए का विरोध भी करते रहे हैं,लेकिन उनकी आवाज़ नक़्क़ारखाने में तूती की तरह दब गई।अमेरिका के आगे बोल भी नहीं सकते। चीन की सेना में 30 लाख सैनिक हैं।उधर,नाटो में शामिल सारे तीस राष्ट्रों की सेना मिलाकर 33 लाख पर पहुँचती है।इसलिए नाटो राष्ट्रों की मजबूरी है कि वे अमेरिका के छाते तले बने रहें।
सवाल यह है कि भारत नाटो राष्ट्रों की इस धमकी का क्या करे ? पाकिस्तान से बिगड़े रिश्तों के मद्देनज़र अमेरिका और चीन पर हिन्दुस्तान के लिए स्थायी भरोसा करने का कोई मतलब नहीं है और अमेरिका का भय यही है कि उसके ख़िलाफ़ एशिया में रूस,चीन और भारत का त्रिगुट नहीं बने।आबादी को ध्यान में रखें तो चीन और भारत जैसे बड़े बाज़ारों को वह साथ रखना चाहेगा। याने अपनी हरक़तों से अमेरिका ने अपने को एक ऐसे कारोबारी जाल में फँसा लिया है ,जिससे निकलना नामुमकिन नहीं तो आसान भी नहीं है।