राजेश बादल
प्रश्न उठ रहे हैं। पहलगाम में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान और भारत के बीच जंगी झड़पों के दरम्यान क्या रूस कुछ उदासीन सा रहा ? भारत के बौद्धिक और कूटनीतिक क्षेत्रों में यह महसूस किया जा रहा है। इस वर्ग को लग रहा है कि जब भारत ने पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों पर आक्रमण किया तो जैसे बयान इज़रायल से आए,वैसे रूस की ओर से क्यों नहीं आए। इसका उत्तर बहुत कठिन नहीं है तो बहुत आसान भी नहीं है।उसके अनेक कारण गिनाए जा सकते है,लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या रूस ने पाकिस्तान का उस तरह साथ दिया,जैसा चीन ने दिया तो इसका उत्तर यक़ीनन हिन्दुस्तान के लिए राहत देने वाला है। एक सवाल भारत अपने आप से भी पूछ सकता है कि तीन साल से यूक्रेन के साथ लंबे समय तक जंग में उलझे रूस के साथ हम खड़े नज़र तो आए,पर क्या हम चीन की तरह रूस के पक्ष में खुलकर साथ खड़े थे ? नहीं भूलना चाहिए कि रूस अभी भी जंग में उलझा हुआ है।ऐसे में हम उससे किस तरह के समर्थन की अपेक्षा कर रहे थे ? पाकिस्तान और यूक्रेन के मधुर संबंध छिपे हुए नहीं हैं।फिर,यूक्रेन के ख़िलाफ़ भारत को अपने रवैए में तीव्रता नहीं दिखाने के पीछे क्या संकोच था।यह ठीक है कि रूस के साथ बीते तीन वर्षों में भारत के कारोबार में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है।उससे रूस को काफी मदद मिली है।मगर दूसरी ओर भारत को भी तेल और हथियारों के आयात से लाभ हुआ है।यह कोई इकतरफ़ा व्यापार नहीं है।भारत की रूस के साथ साफ़ तौर पर खड़े होने में यदि कोई झिझक हो सकती है तो यही कि चीन के साथ भी उसके बेहद मधुर रिश्ते हैं और विश्व पंचायत के स्वयंभु अमेरिका के विरोध में दोनों देश सीना ताने खड़े हैं।भारत को रूस और चीन की दोस्ती के मद्देनज़र अमेरिका से भी बेवजह टकराव क्यों मोल लेना चाहिए ? यह कारण बेशक़ पहलगाम प्रसंग से पहले का था।पाकिस्तान से युद्धविराम के बाद अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने जिस तरह गिरगिट जैसा रंग बदला है,वह भारत को झटका देने वाला है।अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत के प्रति व्यवहार बदला है।इन दिनों वे भारत के साथ हिंसक रूप में सामने हैं।वे एक के बाद एक ऐसे निर्णय ले रहे हैं,जो भारतीय हितों के अनुकूल नहीं हैं।
तो फिर ऐसे कौन से पैमाने हैं,जिनके आधार पर भारत रूस के साथ अपनी दोस्ती का लिटमस टेस्ट कर सकता है।निवेदन है कि इसके लिए रूस को छाती फाड़ कर भारत के लिए प्रेम दिखाने की आवश्यकता नहीं है।यदि एक बार हम रूस के स्थान पर खुद को खड़ा करके देखें तो सारी पहेलियों का उत्तर मिल जाता है।पहली बात तो हमें स्वीकार करना होगा कि रूस ने आज़ादी के बाद भारत के पुनर्निर्माण में जो सहायता की है,हिन्दुस्तान उसके ऋण से उऋण नहीं हो सकता।यह बात रूस के विचार में क्यों नहीं होनी चाहिए।स्वतंत्रता मिलने के सिर्फ़ आठ साल बाद रूस ने ( उस समय सोवियत संघ विखंडित नहीं हुआ था ) भारत को 60 करोड़ रूबल से अधिक का उदार क़र्ज़ दिया था।उस साल यानी 1955 में सोवियत संघ के मुखिया ख्रुश्चेव भारत आए थे।उन्होंने ऐलान किया था कि हम आपके बहुत क़रीब हैं।अगर आप पहाड़ की चोटी से भी बुलाएँगे तो हम दौड़े चले आएँगे। रूस की सहायता से ही भारत ने अपने पहले 4 स्टील प्लांट भिलाई,बोकारो,रांची और दुर्गापुर में लगाए।तेल सप्लाई से लेकर बिजली उत्पादन में सहायता की और 1970 आते आते 11 बिजलीघर लगा दिए।उस साल तक भारत में रूसी मदद से 60 से अधिक बड़े कारख़ाने लगे।भारत का पहला निर्यात रूसी मदद से इसी औद्योगिक तंत्र के सहारे हुआ था।जब भारत आत्मनिर्भर हो रहा था,तो रूस ने ही 54 साल पहले भारत के साथ रक्षा और शांति सहयोग संधि की थी।उसी बरस पाकिस्तान के साथ युद्ध में रूस की सहायता तो दोनों मुल्क़ों के रिश्तों में भरोसे का ऐसा सुबूत है,जो पूरा हिंदुस्तान जानता है।यह भी खुला तथ्य है कि 1947 से लेकर अभी तक अमेरिका ने एकाध अपवाद को छोड़कर हमेशा पाकिस्तान का खुलकर साथ दिया है।कश्मीर के मामले में उसने कभी अनुकूल रुख़ नहीं दिखाया,जबकि भारत के पक्ष में रूस चट्टान की तरह खड़ा रहा है।उसने भारत के पक्ष में छह बार वीटो किया है। दो बार कश्मीर ,तीन बार पाकिस्तान के मसले पर और एक बार 1961में गोवा को पुर्तगालियों के क़ब्ज़े से मुक्त कराने के समय भी सोवियतसंघ ने भारत के पक्ष में वीटो का इस्तेमाल किया था।यहाँ तक कि 2019 में भारत ने जब कश्मीर से अनुच्छेद 370 विलोपित की,तब भी रूस भारत के साथ ही था।
अब हम देखते हैं कि रूस के लिए भारत सुविधाजनक क्यों है।पहली बात यह कि भारत चरित्र और नीतियों से आक्रामक नहीं है।वह हमले की पहल नहीं करता।रूस इतिहास में 100 से ज़्यादा युद्ध लड़ चुका है,मगर एक भी जंग भारत के साथ नहीं हुई।अतीत में देखें तो चीन से 96 साल पहले वह पूर्ण युद्ध लड़ चुका है।इसके बाद 56 साल पहले1969 में चीन ने उस पर हमला किया था।कुछ द्वीपों को लेकर विवाद था।सात माह तक अघोषित जंग चलती रही।इसमें चीन का पलड़ा भारी रहा।रूस चोट खाकर चुप बैठ गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन में व्यवस्थित सरकार बनाने में उसने बड़ा सहयोग किया था।चीन के वाम नेता उसके पास मदद के लिए गिड़गिड़ाते पहुँचे थे।जब जापान ने चीन पर 1937 में हमला किया तो फिर चीन ने रूस के आगे हाथ जोड़े तो रूस ने हज़ारों सैनिक चीन में उतार दिए थे।उसी चीन ने तमाम उपकारों को भुलाते हुए रूस से सीमा विवाद पर संघर्ष किया।रूस का सरकारी प्रकाशन कहता है ," चीनी नेताओं ने घनघोर सोवियत विरोधी प्रचार का सहारा लिया।बावजूद इसके कि सोवियत संघ की मदद से ही चीनी लोक गणराज्य स्थापित हो पाया था।फिर भी चीन ने सातवें दशक में सोवियत संघ से संबंध बिगाड़ने में कसर नहीं छोड़ी "।इतना ही नहीं ,जर्मनी से लेकर कई यूरोपीय मुल्कों से रूस जंग लड़ चुका है।क्या रूस और भारत के संबंधों का यह लिटमस टेस्ट नहीं है ?