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Added on : 2024-06-07 13:43:49

डॉ. सुधीर सक्सेना
बाबू लौट आये हैं। बाबू यानि नारा चंद्रबाबू नायडू गारु। वह न सिर्फ आंध्रप्रदेश में सत्ता में लौटे हैं,बल्कि उन्होंने निवर्तमान मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाई एस आर कांग्रेस को भी सूबे में चौतरफा धूल चटा दी है। सन् 2019 में वह मुष्टिका-प्रहारों से रिंग की रस्सियों से जा टिके थे,लेकिन  स्वयं को बखूबी बचा ले गये। मुहावरे में कहे तो ही बाउँस्ड बैक। सन् 2024 के सद्य-संपन्न चुनाव में उन्होंने प्रतिद्वंद्वी जगनमोहन को चित तो किया ही ,लोकसभा चुनाव में 'क्वांटम लीप' की बदौलत राष्ट्रीय राजनीति में 'किंग मेकर' बनकर हमारे सामने हैं। नरेन्द्र मोदी के चुनावी अश्व मेध की घोड़ों को गंगो-जमुन के दोआबे में राहुल-अखिलेश की जोड़ी ने ऐसा पकड़ा कि 272 का अंक बीजेपी की हथेलियों से छिटक गया। अब स्थिति यह है कि नरेन्द्र मोदी को तीसरी पारी के लिए 'बाबू' के समर्थन की दरकार है। अवाम ने उनकी 'अबकी बार, चार सौ पार' की गफलत दूर कर दी है। होगा वही जो परोक्ष रूप से आरएसएस और प्रत्यक्षत: नायडू-नीतीश की जुगल जोड़ी चाहेगी।
यह पहला मौका नहीं है कि नायडू गारु को राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने का मौका मिल रहा है। दरअसल,नायडू का राजनीतिक करियर अदम्य संकल्प,मुसलसल जद्दोजहद, आहटों को बूझने और मौकों को भुनाने की मिलीजुली गाथा है। उनके खाते में करीब पांच दशकों का राजनीतिक अनुभव है। यह अनुभव ही उनकी पूंजी है । इसी पूंजी ने उन्हें समकालीन राजनीति के कुशल और सयाने योद्धा में बदल दिया है। अपने इसी सयानेपन से वह ऐसे राजनीतिक कीमियागर के तौर पर उभरे हैं, जिसकी बंधी  मुट्ठियों के भीतर  का अंदाजा लगाना औरों के लिए मुश्किल हो गया है।
नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी भाजपानीत एनडीए का हिस्सा है। नायडू ने भारतीय जनता पार्टी और पवन - कल्याण की जनसेना पार्टी (जेएसपी) से गठबंधन वाई एस आर कांग्रेस को शिकस्त देने के मकसद से चुनाव पूर्व वेला में किया था। गठबंधन के लिए वार्ताओं के कई दौर चले। धागे उलझे । उनमें गांठें भी पड़ीं, लेकिन अंतत: बात बन ही गई। मोदी की राष्ट्रीय छवि,पवन कल्याण के ग्लैमर और तेदेपा की रीतियों- नीतियों की मिली-जुली रणनीति ने जगनमोहन और उनकी पार्टी को चारों खाने चित्त कर दिया। नायडू ने यह सब अपनी शर्तों पर किया। उन्होंने सीटों पर कोई 'कंप्रोमाइज' नहीं किया। वह हरसू बड़े भाई की भूमिका में रहे। आंध्र में लोकसभा की कुल जमा 25 सीटों में से उन्होंने बीजेपी को फकत छह सीटें दीं और 17 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। 17 में से 16 सीट उनकी पार्टी के खाते में आयी और बीजेपी के आधे जीते और आधे उम्मीदवार हार गए। पिछले चुनाव में 22 सीटों पर जीत का परचम लहराने वाली 
वाई एस आर कांग्रेस अंक तालिका में चार पर सिमट गयी। उसे 18 सीटों का घाटा हुआ। इस चुनाव में दो और बातें दिलचस्प रहीं। कासु बह्मानंद रेड्डी, नीलम संजीव रेड्डी और पामुलपर्ती वेंकट नरसिंहराव के गृह प्रदेश में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला। वह सिफर पर अटक गई ।  सूबे में कांग्रेस की मुखिया और दिग्गज नेता (एस) राजशेखर रेड्डी की बिटिया शर्मिला कडप्पा से चुनाव हार गयीं। वह अपने भाई जगन से पिता की विरासत छीनने में नाकामयाब रहीं। शर्मिला की मां विजयम्मा की अपील भी बेअसर रही। कडप्पा में विजयी वाईएसआर कांग्रेस के विजयी अविनाश रेड्डी के निकटतम प्रतिद्धन्दी रहे तेदेपा के सी भूपेश सुब्बेराम रेड्डी। शर्मिला तीसरी पायदान पर रहीं। इस चुनाव की दूसरी खूबी यह रही कि लोकप्रिय सिने-कलाकार पवन कल्याण की पार्टी जेएसपी को दोहरी सफलता मिली। जेएसपी को यह अभूतपूर्व सफलता नायडू गारू की बदौलत मिली। पिछले विधानसभा चुनाव में जेएसपी का सिर्फ एक विधायक चुना गया था। स्वयं पवन कल्याण असेंबली का चुनाव हार गये थे। लेकिन इस बार बाबू-चलित त्रोइका ने कमाल कर दिया। जेएसपी ने लोकसभा की सिर्फ दो सीटों पर चुनाव लड़ा। दोनों सीटों काकीनाडा और मछलीपटनम- से उसके प्रत्याशी जीते। जन- समर्थन इस कदर छप्पर फाड़कर बरसा कि उसके सभी 21 प्रत्याशी विधानसभा के लिये चुन लिये गये। जेएसपी की शत-प्रतिशत विरल सफलता अकेले पवन कल्याण के बूते की बात न थी। उसमें ईंट-गारा बाबू के राजनीतिक कौशल का लगा।
आंध्र प्रदेश में इस बार मतदान प्रतिशत अच्छा रहा। 81.86 फीसद। जगन की पार्टी ने केवल अरकु, कडप्पा, तिरुपति और राजमपेट में कामयाबी पाई और बाबू की बगलगीर बीजेपी ने राजमुंद्री, नरसापुरम और अंकापल्ली में जीत दर्ज की। 'कम बैंक' के मिशन की बदौलत तेदेपा ने विशाखापटनम, काकुलम, विजयनगरम,एलुरु, अमलापरम, विजयवाड़ा, चित्तूर, नेल्लोर, हिंदू पुर आंगोल, नंदयाल, कुर्नूल, अनंतपुरम, बपतला, नरसारावपेट और गुंटूर के संसदीय किले फतह कर लिये। असेंबली के नतीजे भी उत्साहवर्धक रहे। 175 विधायकों के सदन में तेदेपा के विधायकों की संख्या 135 तक पहुंची तो सहयोगी दलों- बीजेपी और जेएसपी के क्रमश: आठ और इक्कीस एमएलए चुने गये। परिदृश्य स्पष्ट है। क्रिस्टल क्लियर। किसी मणिभ की नाई पारदर्शी। बाबू की जद्दोजहद रंग लाई। वस्तुत: बाबू की इस दशक के शुरूआती दशक की यात्रा संकल्प से सिद्धि की अनूठी यात्रा रही है। वर्ष 2021 सदन में परिजनों के खिलाफ अनुचित और अशोभन टिप्पणी ने उन्हें इस कदर आहत किया था कि उन्होंने इस प्रण के साथ सदन से बहिर्गमन किया था कि वह सीएम बनकर ही लौटेंगे। उनका संकल्प पूरा हुआ। जनता ने उनके प्रण की लाज रखी, लेकिन उनका समय खराब गुजरा। सरकारी एजेसियां उनके पीछे लगी।  स्किल डेवलपमेंट घोटाले में  सीआई डी ने पिछले साल नौ सितंबर को तड़के गिरफ्तार कर लिया। हत्भाग्य नायडू ने करीब दो महीने राजमहेंद्रवरम सेंट्रल जेल में बिताये। अंतत: कोर्ट में दखल से उन्हें  मुक्ति मिली।
नायडू ने राजनीतिक करियर 70 के दशक में यूथ कांग्रेस से शुरू किया था। वह वेंकटेश्वर यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। अर्थशास्त्र में पीएचडी बाबू सन् 80 के दशक में नंदमूूरि तारक रामाराव की पार्टी तेलुगूदेशम से जुड़ गये, जिनकी पुत्री भुवनेश्वरी से उन्होंने विवाह किया था। सन् 1978 में पहली बार विधानसभा के लिए निर्वाचित नायडू सन् 1985 में श्वसुर एनटीआर का तख्तापलट करने के बाद पहली दफा सीएम बने। सन् 1999 में दूसरी और 2014 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। कुल जमा तेरह साल सीएम रह चुके नायडू अब चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। यकीनन यह विरल कीर्तिमान है और नायडू गारु की कमीज पर चमकीला तमगा।
सियासत में उनकी ताजातरीन सफलता निश्चित ही उनका ऐसा, प्रभामंडल सिरजती है, जिसकी चमक दिल्ली में महसूस की जा रही है। नायडू जुझारू नेता हैं । एक हद तक जिद्दी भी हैं। वह न मुद्दे छोड़ते हैं और न अपना हठ। गाहे-बगाहे हालात को देखकर वह चीजों को मुल्तवी भले ही कर दें। आंध्र को स्पेशल राज्य का दर्जा देने की मांग अभी भी दिल्ली दरबार में लम्बित है। नये हालात में वह इस अर्जी पर फौरन फैसला चाहेंगे। जहां तक बीजेपी से रिश्तों की बात है, उससे उनके रिश्ते बनते-
बिगड़ते रहे हैं। वह मुस्लिमों को चार प्रतिशत आरक्षण के हिमायती हैं। सन 2002 में उन्होंने गुजरात में दंगों के खिलाफ आवाज उठाई थी। केंद्रीय राजनीति में वह  समय-समय पर रुख बदलते रहे हैं। वह वक्त के तकाजे को बूझकर फैसले करते हैं और पैंतरे भी बदलते हैं। आसमान में बादलों को देख - कर वह तय करते हैं कि छतरी लेकर निकलना है या बरसाती ओढ़कर या फिर यात्रा स्थगित करनी है। वह विजनरी नेता हैं। उनके पास विकास का  एजेंडा है और ब्लूप्रिंट भी। हैदराबाद में साइबराबाद बसाकर उसे आईटी राजधानी बनाने की श्रेय उन्हें है। आंध्र दस साल के प्रावधान के उपरांत अब राजधानी विहीन है। अमरावती उनका ख्वाब है। अब वह सियासी बियाबां अथवा नेपथ्य से निकलकर मंच के बीचों-बीच रोशनी के वृत्त में हैं। उन्हें अनेक भूमिकाएं एक साथ निभानी हैं। देखना दिलचस्प होगा कि वह आंध्र के विकास की इबारतें लिखने के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के रंगमंच पर पटकथा को कितना प्रभावित करते हैं?

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