• डॉ. सुधीर सक्सेना
चीन तिब्बती बौद्धों के सर्वोच्च धर्मगुरु को पसंद नहीं करता है। साफगोई बरतें तो कहना होगा कि बीजिंग को दलाई लामा फूटी आँखों नहीं सुहाते हैं। ऐसा आज से नहीं है। चीनी अधिकारियों ने उन्हें झांसा देकर ल्हासा में सन 1959 में ही बंदी बना लिया होता। उन्होंने उन्हें एक समारोह में निहत्थे आने का आमंत्रण भी भेजा गया था, लेकिन बीजिंग की मंशा भांपकर दलाई लामा अपने चुनिंदा साथियों और अनुयाइयों के साथ रातों-रात पलायन कर भारत चले आये। वह दिन और आज का दिन दलाई तिब्बती अनुयाइयों के हिमांचल में धर्मशाला में रह रहे हैं। धर्मशाला में मैक्लियॉडगंज में ही तिब्बतियों की निर्वासित सरकार का पीठ हो।
दलाई लामा नब्बे के हो गये हैं, लेकिन वह चैतन्य और सक्रिय हैं। अनुमान था कि वह छह जुलाई को अपने जन्मदिन पर अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करेंगे। उनके ऐलान की संभावना के मद्देनजर बीजिंग की भृकुटि में बल पड़ गये थे और सरकारी बयान भी जारी हुआ था। प्रत्युत्तर में भारत ने भी बयान जारी किया था, किंतु दलाई लामा ने संयम बरता और अपने उत्तराधिकारी की घोषणा स्थगित कर दी। उन्होंने अभी और जीने का विश्वास दोहराया और यह भी कि उसका निर्णय रीत्यानुसार गाडेन फोड़ रांग ट्रस्ट करेगा। इस मामले में किसी भी अन्य एजेंसी के हस्तक्षेप से इंकार करते हुये सर्वोच्च धर्मगुरु ने कहा कि इसमें किसी भी अन्य के दखल की कोई गुंजाइश नहीं है।
दलाई लामा के बयान से इस बात पर संशय के बादल छंट गये कि 14वें दलाई लामा अंतिम दलाई लामा हैं। उन्होंने इसकी पुष्टि कर दी कि उनकी परंपरा उनके बाद भी जीवित रहेगी। उन्होंने संकेत दिया कि उनका उत्तराधिकारी चीन के बाहर जन्म लेगा। यक्षप्रश्न है कि नब्बेवीं वर्षगांठ के पूर्व उत्तराधिकारी की घोषणा का पूर्वाभाष देने के बावजूद दलाई लामा ने छह जुलाई को इस प्रसंग पर चुप्पी क्यों साध ली? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर दलाई लामा के मौन रूपी युधिष्ठिर में नहीं वरन बीते कल के सन्दर्भों में निहित है। इसे समझने के लिये हमें समय के गलियारे में उलटे पाँव चलना पड़ेगा। ऐसा करके ही हम उनके डर को समझ सकेंगे।
करीबत तीन दहाई पहले की बात है। दलाई लाला को भारत में निर्वासित जीवन बिताते हुए साढ़े तीन दशक बीत गये थे। तिब्बत में बौद्ध धर्मावलंबियों में दलाईलामा के बाद सर्वाधिक सम्मानित पद है पंचेन लामा का। पंचेन लामा दलाईलामा के बाद सर्वाधिक पूज्य व्यक्तित्व है। मई, 1995 में दलाई लामा ने छह वर्षीय गेधुन चोएक्यी न्यीमा को 11वां पंचेन लामा घोषित किया। बीजिंग को दलाईलामा का यह कृत्य नागवार गुजरा। तीन दिन बाद ही 17 मई को हादसा हुआ। बालक न्यामा का चीनियों ने कथित अपहरण किया। यही नहीं, उसके परिवार को भी हिरासत में ले लिया गया। तबसे आज तक न तो मनोनीत पंचेन लामा का अता पता चला और न ही उसके परिवार का। चीनी अधिकारियों ने चुप बैठने के बजाय एक और खेल खेला। कुछ ही दिनों बाद उन्होंनें ग्याल्सेन नोरबू को 11वां पंचेन लामा घोषित कर दिया। वर्तमान पंचेन लामा तिब्बत कम ही आते हैा और अपना ज्यादातर समय बीजिंग में बिताते हैं। वह चीन की कम्युनिष्ट पार्टी को तिब्बतियों के हितों के प्रतिनिधि और रक्षक मानते हैं। वह अतीत से सबक लेकर बीजिंग के सुर में सुर मिलाकर बोलते हैं। उन पर चीनी अधिकारियों की तगड़ी नजर रहती है। वह बाहर नहीं जा सकते। चीन के बाहर वह पहले पहल सन 2012 में हांगकांग गये थे। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि 14वें पंचेन लामा ने अपना दायित्व निभाने की भरसक चेष्टा की, किंतु बीजिंग ने अपना दायित्व निभाने की भरसक चेष्टा की, किंतु बीजिंग ने इसे सहन नहीं किया। फलत: उन्हें प्रतिबंध, गिरफ्त और नजरबंदी का सामना करना पड़ा। अंतत: विवश होकर उन्होंने प्रतिरोध व असहयोग का रास्ता त्याग दिया। समझा जाता है कि उन्होंने चीनी नेताओं को इस आशय का वचन दिया। फलत: उन्हें सन 1977 में मुक्त किया गया। इसे उनका राजनीतिक पुनर्वास माना गया। सन 1989 में उनका देहांत हो गया। आज भी बीजिंग की मान्यता है कि उत्तराधिकारी का चयन धार्मिक मामला नहीं है और दलाई लामा को उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह अधिकार बीजिंग के हाथों में सुरक्षित है। दलाई लामा या पंचेन लामा के उत्तराधिकारियों का चयन भी कम्युनिस्ट पार्टी करेगी। वर्षों के अंतराल में दलाई लामा की सोच में अंतर यह आया है कि अब वह तिब्बत की स्वतंत्रता की नहीं, वरन स्वायत्तता की बात करते हैं।